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रविवार, 17 नवंबर 2013

हज़ारों दाग़ हैं ...!

हमारे  पास  है  ही  क्या  किसी  का  दिल  लुभाने  को
हज़ारों  दाग़  हैं     दिल  पे     ज़माने  से     छुपाने  को

न  जाने  क्या     समझ  बैठे   के:  हंगामा  मचा  डाला
ज़रा  सी  बात  थी     हमने  कहा  था     मुस्कुराने  को

न  पूछो    सामने  सब  के   हमारी  कैफ़ियत  क्या  है
सफ़ेदी  ही    बहुत  है    बज़्म  में    नज़रें  झुकाने  को

हमारी  नज़्म  पढ़  आते  हैं  वो:   अपने  तख़ल्लुस  से
नई    ईजाद     लाए      हैं    हमें     नीचा  दिखाने   को

हमीं   पे    चोट   करते   हैं     हमीं   से    रूठ   जाते  हैं
ज़रा   सा    पास   होता   तो    चले  आते    मनाने  को

अज़ीयतदेह  हैं   आमाल   अब     अहले-सियासत  के
ख़ुदा   का    नाम    लेते  हैं    जहां  को    बरग़लाने  को

हमारे   ही     पड़ोसी   हैं     खड़े   हैं    असलहे    ले  कर
हमारी   जान    लेने   को    तुम्हारा   घर    जलाने  को !

                                                                             ( 2013 )

                                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: कैफ़ियत: हाल-चाल; सफ़ेदी: वृद्धावस्था, सफ़ेद बाल; बज़्म: महफ़िल, गोष्ठी; नज़्म: गीत; तख़ल्लुस: कवि-नाम;  
ईजाद: आविष्कार;  पास: चिंता; अज़ीयतदेह: कष्टदायक; आमाल: आचरण;   अहले-सियासत: राजनैतिक लोग; जहां: संसार;   
बरग़लाने: भ्रमित करने; असलहे: शस्त्रास्त्र। 

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत बढ़िया सुरेश भाई , ख़ूबसूरत शब्दों से सजी आपकी बेहतरीन रचना , धन्यवाद
    नया प्रकाशन --: प्रश्न ? उत्तर -- भाग - ६

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  2. उम्दा न जाने क्या समझ बैठे के: हंगामा मचा डाला
    ज़रा सी बात थी हमने कहा था मुस्कुराने को.........वाह !!!!!!!!!!!!

    ग़ज़ल के लिए बधाई.............

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  3. उम्दा ग़ज़ल के लिए बधाई...........

    न जाने क्या समझ बैठे के: हंगामा मचा डाला
    ज़रा सी बात थी हमने कहा था मुस्कुराने को

    वाह भाई वाह !!!!!!!!!!!!!!!!

    जवाब देंहटाएं