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मंगलवार, 17 फ़रवरी 2015

दीदार, नामुमकिन !

नई  तहज़ीब  नामुमकिन,  नए  इक़्दार  नामुमकिन
मुहब्बत  का  करें  हम  आपसे  इज़्हार,  नामुमकिन !

बहुत-से  लोग  हैं  हमको  जहां  में  फ़िक्र  करने  को
रहें  अपने  लिए  हम  रात-दिन  बेज़ार,  नामुमकिन

बुलाएं  रोज़  उनको  ख़्वाब  में,  लेकिन  न  आएंगे
हज़ारों  कोशिशें  ज़ाया,   हज़ारों  बार   नामुमकिन

निभाना  चाहते  हैं  जो,  उन्हें  मुश्किल नहीं  होती
मगर  हर  दोस्त हो  हर  बात  पर  तैयार,  नामुमकिन

ज़माने  का  चलन  है  बेगुनाहों  को  सज़ा  देना
करें  हम  शाह  से  इंसाफ़  की  दरकार,  नामुमकिन

उठाए  हैं  मफ़ायद  टूट  कर  सरमाएदारों  से
ग़रीबों  के  लिए  हो  मुल्क  की  सरकार,  नामुमकिन

सुना  तो  है  बुज़ुर्गों  से,  ख़ुदा  जल्वानुमा  होगा
मजाज़ी  तौर  पर  भी  हो  कभी  दीदार,  नामुमकिन !

                                                                                           (2015)

                                                                                   -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: तहज़ीब: सभ्यता; नामुमकिन: असंभव; इक़्दार: जीवन-मूल्य; इज़्हार: अभिव्यक्ति, प्रकट करना; जहां: संसार; बेज़ार: चिंतित, व्याकुल; ज़ाया: व्यर्थ; ज़माने: दुनिया; चलन: परंपरा; बेगुनाहों: निरपराधों; मफ़ायद: लाभ; सरमाएदारों: पूंजीपतियों; बुज़ुर्गों: बड़े-बूढ़ों; जल्वानुमा: प्रकट; मजाज़ी: दैहिक, सांसारिक; दीदार: दर्शन। 

रविवार, 15 फ़रवरी 2015

'सलीब तय है !'

आदाब, दोस्तों ।
आपके लिए एक ख़बर है, मेरी ग़ज़लों का पहला मज्मू'आ 'सलीब तय है' उनवान से, नई दिल्ली के दख़ल प्रकाशन ने शाया किया है। नई दिल्ली के प्रगति मैदान में चल रहे आलमी किताब मेले (World Book Fare),
14 से 23 फ़रवरी, 2015 के दौरान यह किताब मेले में हाल नं. 12-A, स्टॉल नं. 295 पर मौजूद है। जो एहबाब किताब मेले में न जा पाएं, वो जनाब अशोक कुमार पाण्डेय को ashokk34@gmail.com पर e-mail भेज कर मंगा सकते हैं।
किताब पर आपकी राय का मुंतज़िर रहूंगा।
हमेशा आपका दोस्त
सुरेश स्वप्निल

शनिवार, 14 फ़रवरी 2015

सरकार कब थी ?

तुम्हारे  हाथ  में  तलवार  कब  थी
अगर  थी,  तो  बदन  में  धार  कब  थी

बचाना  चाहते  थे  तुम  सफ़ीना
हमारे  सामने  मझधार  कब  थी

गवारा   हो  न  पाया  सर  झुकाना
मुहब्बत  थी,  मगर  लाचार  कब  थी

किए  थे   मुल्क  से   वादे  हज़ारों
अमल  में  शाह  के  रफ़्तार  कब  थी

ख़ुदा  जाने  किसी  ने  क्या  संवारा
हमें  इमदाद  की  दरकार  कब  थी

जिसे  मौक़ा  मिला  लूटा  उसी  ने
वतन  के  वास्ते  सरकार  कब  थी

वुज़ू  थी,  वज्ह  थी,  जामो-सुबू  थे
ख़ुदा  की  राह  में  दीवार  कब  थी  ?

                                                              (2015)

                                                      -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: सफ़ीना: नाव; गवारा: सह्य; लाचार: निर्विकल्प; अमल: क्रियान्वयन; रफ़्तार: गति; इमदाद: सहायता (बहुव.); दरकार: मांग, आवश्यकता; मौक़ा: अवसर; वास्ते: हेतु; वुज़ू: नमाज़ के लिए आवश्यक स्वच्छता; वज्ह: कारण; जामो-सुबू: मदिरा-पात्र और घट ।


गुरुवार, 12 फ़रवरी 2015

आसमां बदल डाला !

मुफ़लिसों  ने  जहां  बदल  डाला
देख  लो,  आसमां   बदल  डाला

थी  हमें  भी  उमीद  जल्वों  की
'आप'ने  तो  समां  बदल  डाला 

बढ़  गए  ज़ुल्म  जब  ग़रीबों  पर
क़ौम  ने  हुक्मरां  बदल  डाला

आहे-मज़्लूम  के  करिश्मे  ने
हर  भरम,  हर  गुमां  बदल  डाला

मंज़िलों  पर  निगाह  थी  जिनकी
वक़्त  पर  कारवां  बदल  डाला

आंधियों  का  कमाल  ही  कहिए
परचमों  का  निशां  बदल  डाला

तोड़  पाए  न  दिल  हमारा  जब
तो  ग़मों  ने  मकां  बदल  डाला !

                                                           (2015)

                                                 -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मुफ़लिसों: वंचितों; जहां: संसार; आसमां: आकाश, संभावनाएं; उमीद: आशा; जल्वों: दर्शनों, दृश्य-विधानों; समां: वातावरण; ज़ुल्म: अत्याचार; क़ौम: राष्ट्र, देश; हुक्मरां: शासक; आहे-मज़्लूम: अत्याचार-पीड़ितों के आर्त्तनाद; करिश्मे: चमत्कार; भरम: भ्रम; 
गुमां: अनुमान; मंज़िलों: लक्ष्यों; कारवां: यात्री-दल; परचमों: ध्वजों; निशां: प्रतीक, चिह्न; मकां: घर । 


जरायम भुला दें ?

चलो,  आज  दिल  को  ठिकाने  लगा  दें
किसी  और  बेहतर  जगह  पर  बसा  दें

नज़र  के  लिए  तरबियत  है  ज़रूरी
इसे  अब  धड़कना,  तड़पना  सिखा  दें

ज़ेह् न  कह  रहा  है,  मियां ! बख़्श  भी  दो
कहां  तक  तुम्हें  ज़िंदगी  की  दुआ  दें

जिगर  है  कि  बस,  डूबना  चाहता  है
न  आएं, मगर  कुछ  मदावा  बता  दें

न  हाथों  में  ताक़त,  न  पांवों  में  क़ुव्वत
क़लम  से  तो  हम  आसमां  को  झुका  दें

हमें  शाह  से     दुश्मनी      तो  नहीं  है
मगर  किस  तरह  से  जरायम  भुला  दें  ?

मिलेंगे  किसी  और  दिन  ज़िंदगी  से
अभी  मौत  से  एक  वादा  निभा  दें  !

                                                                         (2015)

                                                                -सुरेश   स्वप्निल 

शब्दार्थ: तरबियत: संस्कार, शिक्षा; ज़ेह् न: मस्तिष्क; बख़्श: छोड़ना; जिगर: यकृत, साहस; मदावा: उपचार; ताक़त: शक्ति, क़ुव्वत: सामर्थ्य; क़लम: लेखनी; आसमां: आकाश, ईश्वर; ज़रायम: अपराध (बहुव.) ।

बुधवार, 11 फ़रवरी 2015

...वो ख़ुदा सा है !

रंगे-मौसम  नया-नया  सा  है
मोजज़ा  आज  ही  हुआ  सा  है

ये  शुआएं  उसी  की  नेमत  हैं
ख़द्द  जिसका  ज़रा  खुला  सा  है

आप  फिर  बेहिजाब  आ  निकले
चांद  देखो,  बुझा-बुझा  सा  है 

हालते-दिल  कहें,  ग़ज़ल  कह  लें
हर्फ़-ब-हर्फ़  इक  दुआ  सा  है

आप  रातें  तबाह  मत  कीजे
ख़्वाब  मेरा  वहीं  छुपा  सा  है

आज  मंज़िल  निगाह  में  होगी
रास्ता  बस,  अभी  मिला  सा  है

साज-सिंगार  देखिए  उसका
सोचता  है  कि  वो  ख़ुदा  सा  है

एक  फ़र्ज़ी  क़िला  डुबा  बैठा
शाह  का  सर  झुका-झुका  सा  है

लोग  ख़ाना-ख़राब  कहते  हैं
और  दिल  आप  पर  टिका  सा  है !

                                                           (2015)

                                                  -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: रंगे-मौसम: ऋतु का रूप; मोजज़ा: चमत्कार; शुआएं: किरणें; नेमत: देन, कृपा; ख़द्द: मुख; बेहिजाब: निरावरण; हालते-दिल: मन की दशा; हर्फ़-ब-हर्फ़: एक-एक अक्षर,अक्षरशः; दुआ: प्रार्थना; फ़र्ज़ी: शतरंज की एक गोटी, वज़ीर, मंत्री; ख़ाना-ख़राब: यायावर । 

सोमवार, 9 फ़रवरी 2015

लौट आएंगी बहारें....


हुकूमत  का  बड़ा  एहसान  होगा
अगर  जीना  ज़रा  आसान  होगा

हमें जिस शख़्स का अरमान होगा
उसी  पर    आसमां   क़ुर्बान  होगा

अगर   ख़ामोश  रहता   है  दीवाना
कहीं  दिल  में  दबा  तूफ़ान  होगा

उसी  दिन   लौट  आएंगी  बहारें
कि तू जिस दिन मिरा मेहमान होगा

ग़ज़ब हैं हिंद के अह् ले सियासत
ख़ुदा  भी  देख  कर   हैरान  होगा

करेगा  शाह  की  जो  भी  हिमायत
निहायत  बदगुमां,  नादान   होगा

हमारे   आशियां  में  क्या  कमी  है
कि  अपना  ख़ुल्द  पर  ईमान होगा !

                                                        (2015)

                                              -सुरेश  स्वप्निल 

 शब्दार्थ :  हुकूमत: शासन; एहसान: अनुग्रह; शख़्स: व्यक्ति; अरमान: अभिलाषा; आसमां: आकाश, ईश्वर; क़ुर्बान: न्यौछावर; तूफ़ान: झंझावात; अह् ले सियासत: राजनैतिक, नेता गण; ग़ज़ब: विचित्र, आश्चर्यजनक; हिमायत: समर्थन; निहायत: अत्यंत;  बदगुमां: भ्रमित,  नादान: अबोध; आशियां: आवास; ख़ुल्द: स्वर्ग; ईमान: आस्था । 

शनिवार, 7 फ़रवरी 2015

रश्क़े-समंदर हम !

न  नींद  आए  न  चैन  आए
तो  आशिक़  क्यूं  हुआ  जाए

लिया  तक़दीर  से  लोहा
बहारें  लूट  कर  लाए

हज़ारों  बार  दिल  जीते
हज़ारों  बार  पछताए

 ज़ुबां  ख़ामोश   रह  लेगी
नज़र  को  कौन  समझाए

कहां  हम  थे,  कहां  दुनिया
न  आपस  में  निभा  पाए

रहे  रश्क़े-समंदर  हम  
हमीं  कमज़र्फ़  कहलाए

चलो  माना,  ख़ुदा  भी  है
कभी  तो  शक्ल  दिखलाए  !

                                                   ( 2015 )

                                            -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: रश्क़े-समंदर: समुद्र की ईर्ष्या के पात्र; कमज़र्फ़: उथले। 


                                          

गुरुवार, 5 फ़रवरी 2015

नूर न पाया जिसने...

यारों  का  ग़म  दूर  न  होगा
तो  सज्दा   मंज़ूर   न  होगा

ख़ुशफ़हमी  में  जीते  रहिए
ज़ख़्म  कभी  नासूर  न  होगा

खुल  कर  सब  कुछ  कह  देता  है
यह  शायर  मशहूर  न  होगा

हर  नाल:   नाकाम  रहेगा
दर्द  अगर  भरपूर  न  होगा

जिस्म  अभी  तो  चल  जाएगा
जब  तक  थक  कर  चूर  न  होगा

शाहों  से  समझौता  कर  ले
दिल  इतना  मजबूर  न  होगा

ख़ुद  में  नूर  न  पाया  जिसने
वो    मूसा     मंसूर  न  होगा  !

                                                              (2014)

                                                              -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: सज्दा: आपादमस्तक प्रणाम; ख़ुशफ़हमी: सुख का भ्रम; नासूर: कठिन घाव, जिसमें कीड़े पड़ जाएं; नाल:: आर्त्तनाद; नाकाम: निष्फल; नूर: प्रकाश; मूसा: हज़रत मूसा अ.स., जिन्होंने ख़ुदा की झलक पाने का दावा किया, इस्लाम के द्वैत-वादी दार्शनिक; मंसूर: हज़रत मंसूर अ.स., जिन्होंने 'अनलहक़' ('अहं ब्रह्मास्मि') का उद्घोष किया जिसके कारण उन्हें सूली पर चढ़ा दिया गया, बाद में ईश्वर के दूत के रूप में स्वीकृत हुए, इस्लाम के अद्वैतवादी दार्शनिक।