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गुरुवार, 13 दिसंबर 2012

कहाँ चले बड़े मियां ?






कहाँ  चले  बड़े मियां

पहाड़ सी उमर लिए
बुझी हुई नज़र लिए
झुकी हुई कमर लिए
कहाँ चले  बड़े मियां ? 

कहाँ  चले ?

कहाँ चले, रुको ज़रा
सुकून से बैठो  यहाँ
कमर का ख़म मिटाओ तो
बयान-ए- ग़म सुनाओ तो

कहाँ चले के: उठ चुके हैं
दोस्त दरम्यान से
के: अब किसी की जेब में
न वक़्त है न दर्द है
न आरज़ू  न हौसला
नक़द  का बंदोबस्त
या उधार की जुगत नहीं
किसे सुनाओगे मियां?

नवाबियाँ चली गईं
मगर ठसक वही रही !
अजी जनाब, छोड़िये
ये: तीतरों का पालना 

कुछ घर की फ़िक्र  कीजिये
औलाद की भी सोचिये 
कहाँ रहे वो: रात-दिन
के: शौक़ में गुज़ार दें ?
अब आदमी के पेट को
काफ़ी  नहीं हैं  रोटियां
तो तीतरों की क्या बिसात ?

अरे-अरे बड़े मियां
उफ़! आप ने ये: क्या किया
मज़ाक ही मज़ाक में
परिंदों को उड़ा दिया ?!!

                            ( 1986)

               -सुरेश  स्वप्निल