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गुरुवार, 30 जनवरी 2014

हो गए दर-ब-दर..!

चांदनी  का  सफ़र  देखिए  तो  सही
नीम-रौशन  शहर  देखिए  तो  सही

लौट  कर  आ  गई  है  हमारी  तरफ़
मंज़िलों  की  नज़र  देखिए  तो  सही

बात  ही  बात  में  हो  रही  है  ग़ज़ल
दोस्ती  का  असर  देखिए  तो  सही

आप  ही  इब्तिदा,  आप  ही  इंतेहा
आप  ही  बे-ख़बर  देखिए  तो  सही

ये:  सिला  शायरी  ने  दिया  है  हमें
हो  गए  दर-ब-दर,  देखिए  तो  सही

आपके  ज़िक्र  से  दिल  महकने  लगा
ये:  अरूज़े-बहर,  देखिए  तो  सही

मौत  को  आश्ना  कर  लिया  जिस्म  ने
क़िस्स:-ए-मुख़्तसर  देखिए  तो  सही  !

                                                         ( 2014 )

                                                   -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: नीम-रौशन: अर्द्ध-प्रकाशित;  इब्तिदा: आरंभ;  इंतेहा: सीमा, अंत; बे-ख़बर: समाचार/ सूचना से वंचित; 
सिला: प्रतिफल; दर-ब-दर: बेघर; अरूज़े-बहर: छंद-सौन्दर्य; आश्ना: साथी; क़िस्स:-ए-मुख़्तसर: संक्षित कथा ।
 

बुधवार, 29 जनवरी 2014

और हम ना बिकें ...!

उस  पे  ईमां  रखें  तो  दीवाने
ख़ुद  को  ख़ुद-सा  कहें  तो  दीवाने

तीरगी  में  जिएं  तो  बेचारे
शम्'अ  बन  कर  जलें  तो  दीवाने

वो:  सियासत  करें  तो  हक़  उनका
हम  शिकायत  करें  तो  दीवाने

लोग  बोली  लगाएं  ईमां  की
और  हम  ना  बिकें  तो  दीवाने 

तुम  तमाशा  बनाओ  औरों  का
लोग  तुम  पर  हंसें  तो  दीवाने

आप  दिल  तोड़  दें  तो  जायज़  है
हम  तग़ाफ़ुल  करें  तो  दीवाने

तुम  जहां  से  कहो  तो  अफ़साना
हम  ख़ुदा  से  कहें  तो  दीवाने  !

                                                     ( 2014 )

                                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: उस  पे: ईश्वर पर;  ईमां: आस्था; तीरगी: अंधकार; सियासत: राजनीति; हक़: अधिकार; 
जायज़: उचित; तग़ाफ़ुल: उपेक्षा; अफ़साना: कहानी।

मंगलवार, 28 जनवरी 2014

ज़िंदगी की रिदा ...!

वक़्त   बदला  नहीं,  दौड़  कर  चल  दिया
मौसमे-गुल  चमन  छोड़  कर  चल  दिया

जी  रहे  थे  वफ़ा  का  भरोसा  किए
और  वो:  सिलसिला  तोड़  कर  चल  दिया

दिल  के  तूफ़ां  ने  कश्ती  डुबोई  मेरी
रुख़  भंवर  की  तरफ़  मोड़  कर  चल  दिया

चांद   टूटे    दिलों    का    सहारा  बना
रिश्त:-ए-ज़िंदगी  जोड़  कर  चल  दिया

मुस्कुरा  के  फ़रिश्ता  दग़ा  कर  गया
ज़िंदगी  की  रिदा  ओढ़  कर  चल  दिया !

                                                             ( 2014 )

                                                        -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: फूलों की ऋतु; चमन: उपवन; सिलसिला: क्रम, सम्बंध; तूफ़ां: झंझावात; कश्ती: नौका; रुख़: दिशा; रिश्त:-ए-ज़िंदगी: जीवन-सम्बंध; फ़रिश्ता: मृत्यु-दूत, ईश्वरीय दूत; दग़ा: कपट;

सोमवार, 27 जनवरी 2014

ख़ुदा से रू-ब-रू हों ..!

दर्द  दुनिया  के   मेरी  चश्म  में  उतर  आए
बड़ी  ख़ुशी  है  कि  मेहमान  सही  घर  आए

तुम्हारी  याद  जो  आई  तो  मोजज़े  की  तरह
कई    मक़ामे-इश्क़    ज़ेह्न    में   उभर  आए

न  जी  को  चैन  मिला  और  न  रूह  को  तस्कीं
तेरे   ख़याल   हमें    क्यूं    रहे-सफ़र    आए 

तमाम  उम्र     गुज़ारी    बिना  तग़ाफ़ुल  के
उम्मीद  तो  है  कि  उम्मीद  कोई  बर  आए 

बचा  नहीं  है  कोई  उन्स  ज़िंदगी  से  मुझे
दुआ  करो  कि  फ़रिश्ता  मेरा  नज़र  आए 

वक़्ते-मग़रिब  जहां  में  आए  थे  शम्'अ  बन  कर
है  तमन्ना  कि  मौत  अब  लबे-सहर  आए

ख़ुदा  से  रू-ब-रू  हों  हम  तो  ये:  नज़ारा  हो
अज़ां  लबों  पे  रहे   और  निगाह  भर  आए  !

                                                                     ( 2014 )

                                                                -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: चश्म: नयन; मोजज़ा: चमत्कार; मक़ामे-इश्क़: प्रेम से सम्बंधित स्थल; ज़ेह्न: मस्तिष्क, स्मृति; 
तग़ाफ़ुल: आपत्ति;  उन्स: लगाव, अनुराग;  फ़रिश्ता: मृत्यु-दूत; सांध्य-समय; रू-ब-रू: समक्ष; नज़ारा: दृश्य।

शनिवार, 25 जनवरी 2014

...लोहा पिघल गया !

यौमे-जम्हूरियत पर ख़ास

सदमे  में   हैं  हुज़ूर    के:    मौक़ा     निकल  गया
दिल्ली  का  तख़्त  हाथ  में  आ  के  फिसल  गया

कल  तक  खड़े  हुए  थे  ख़िलाफ़त  में   शाह  की
मनसब  मिला  तो  आपका  लोहा  पिघल  गया

जम्हूरियत  के  नाम  पे  घर-बार  लुट  गया
आख़िर  उम्मीद  का  दिन  नाकाम  ढल  गया

ईमां    ख़रीदने    को    मेरा    शाह   अड़  गया
अल्लाह  तेरा  शुक्र  है  कि  दिल  संभल  गया

आमद  पे  मेरी  बज़्म  में  वो:  ख़ुश  न  थे  अगर
दिल  बल्लियों  जनाब  का  क्यूं  कर  उछल  गया

हम    आ    चुके     थे    दूर     तलाशे-बहार     में
क़िस्मत  की  बात  ख़ुल्द  का  मौसम  बदल  गया !

                                                                        ( 2014 )

                                                                  -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: सदमे में: आघात की स्थिति में; ख़िलाफ़त: विरोध; मनसब: ऊंचा पद; लोहा: संघर्ष की भावना; जम्हूरियत: गणतंत्र; 
ईमां: नैतिकता; आमद: आगमन; बज़्म: सभा; तलाशे-बहार: बसंत की खोज; ख़ुल्द: स्वर्ग।

गुरुवार, 23 जनवरी 2014

तीर चूका नहीं...!

बच  गए  गर  फ़रेब  खाने  से
क्या  कहेंगे  भला  ज़माने  से

आप  ख़ुद  ही  ठिठक  गए  वर्ना
किसने  रोका  क़रीब  आने  से

एक  कोशिश  तो कीजिए  शायद
बात  बन  जाए  मुस्कुराने  से

दोस्ती  यूं  नहीं  चला  करती
बाज़  आ  जाएं  दिल  जलाने  से

तोहफ़:-ए-दिल  संभाल  के  रखियो
जो  मिला  है  ग़रीब ख़ाने  से

तंज़  करने  लगे  हैं  वो:  हम  पर
तीर  चूका  नहीं  निशाने  से

थी  तुम्हें  ख़ुल्द  में  ज़रूरत  तो
रोक  लेते  हमें  बहाने  से  !

                                                    ( 2014 )

                                              -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: गर: यदि; फ़रेब: छल-कपट; तोहफ़:-ए-दिल: हृदय-रूपी उपहार; ग़रीब ख़ाना: आतिथ्य-कर्त्ता का घर; तंज़: व्यंग्य; ख़ुल्द: स्वर्ग। 

मौसम के साज़िंदे ..!

हम  तो  खुल  कर  सच्ची  बातें  करते  हैं
साहिब  जाने  क्यूं    दुनिया  से   डरते  हैं

रफ़्ता-रफ़्ता   याद  किसी  की   आती  है
रेशा-रेशा   दिल  में    नक़्श    उभरते  हैं

मौसम    के    साज़िंदे   सुर  में  आते  हैं
क़ुदरत  के   दामन  में  रंग   निखरते  हैं

हम  क्या  हैं  दरिया  की  मौजों  से  पूछो
तूफ़ां    हम  से    मीलों  दूर    गुज़रते  हैं

अपनी  ख़ुशियों  को  चौराहे  पर  ला  कर
हम सब के  ग़म का ख़मियाज़ा  भरते  हैं

अपना दिल वो: कश्ती है जिसके दम  पर
मज़लूमों   के   अरमां    पार    उतरते  हैं

एक  अक़ीदत  का    सरमाया   काफ़ी  है
इस  ज़रिये  से  बिगड़े  काम  संवरते  हैं !

                                                        ( 2014 )

                                                  -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: साहिब: मालिक, विशिष्ट व्यक्ति; रफ़्ता-रफ़्ता: धीरे-धीरे; रेशा-रेशा: तंतु-तंतु पर;  नक़्श: आकार; साज़िंदे: वाद्य-यंत्र बजाने वाले; दरिया: नदी; मौजों: लहरों; ख़मियाज़ा: क्षति-पूर्त्ति; कश्ती: नौका; मज़लूमों: अत्याचार-ग्रस्त; अरमां: महत्वाकांक्षाएं; अक़ीदत: आस्था; सरमाया: पूंजी; ज़रिये: संसाधन।     

बुधवार, 22 जनवरी 2014

... ज़हर लाए हैं !

दर्द  लाए  हैं  के:  अश्'आर-ए-असर  लाए  हैं
आज  क्या  आप  कोई  ख़ास  ख़बर  लाए  हैं

चंद  अल्फ़ाज़े-हुनर  और  कुछ  नए  एहसास
जो  भी  लाए  हैं  बिना  कोर-कसर  लाए  हैं

नाज़ो-अंदाज़  पे  इतराएं  क्यूं  न  वो:  अपने
लूट  कर  हमसे  दिलकशी  की  बहर  लाए  हैं

एक  ही  बूंद  से  क़िस्सा  तमाम  कर  डाला
सुब्हान अल्लाह !  बड़ा  तेज़  ज़हर  लाए  हैं

दाद  का  हक़  है  हमें,  काम  बेमिसाल  किया
हम  शबे-तार  की  आंखों  से  सहर  लाए  हैं

राज़  है  कुछ  तो  जो  सीने  में  छिपा  रक्खा  है
जाम  भर-भर  के  जो  ये:  ख़ुम्रे-नज़र  लाए  हैं

दिल  बिछाएं  के:  नज़र  कोई  तो  इस्ला:  कीजे
तोहफ़:-ए-नूर  ख़ुदा  फिर  मेरे  घर  लाए  हैं !

                                                                            ( 2014 )

                                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: अश्'आर-ए-असर: प्रभावी शे'र; अल्फ़ाज़े-हुनर: दक्षता-पूर्ण शब्द; नाज़ो-अंदाज़: भाव-भंगिमाएं; दिलकशी की बहर: मनमोहक छंद; सुब्हान अल्लाह: साधु-साधु; दाद: प्रशंसा; बेमिसाल: अनुपम; शबे-तार: अमावस्या; सहर: उष:काल; राज़: रहस्य; जाम: मदिरा-पात्र; ख़ुम्रे-नज़र: दृष्टि-रूपी मदिरा; इस्ला: : परामर्श; तोहफ़:-ए-नूर: प्रकाश का उपहार।

सोमवार, 20 जनवरी 2014

...ये: मुद्द'आ नहीं है !

दिल  दें  न  दें  हमें  वो:  ये:  मुद्द'आ  नहीं  है
लेकिन  नज़र  में  उनकी  शायद  वफ़ा  नहीं  है

क्या  ढूंढते   हैं   यां-वां  जो  चाहिए   बता  दें
हालांकि  हमको  दिल  का  ख़ुद  भी  पता  नहीं  है

दिन-रात  तड़पने  की  कोई  वजह  बताएं
यूं  दरमियां  हमारे  कुछ  भी  हुआ  नहीं  है

है  कौन  दुश्मने-दिल  अल्लाह  देख  लेगा
काफ़िर  हैं  जिनके  लब  पे  कोई  दुआ  नहीं  है

ऐसे  भी  लोग  हम  पर  तन्क़ीद  कर  रहे  हैं
इल्मे-सुख़न  से  जिनका  कुछ  वास्ता  नहीं  है

दिल  तोड़ने  का  सबको  हक़  तो  ज़रूर  है  पर
इस  जुर्म  के  मुताबिक़  कोई  सज़ा  नहीं  है

आज़ारे-दिल  के  आगे  अल्लाह  भी  है  बेबस
पढ़ते  हैं  सब  नमाज़ें  लेकिन  शिफ़ा  नहीं  है !

                                                                ( 2014 )

                                                         - सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: मुद्द'आ: बिंदु, विषय; वफ़ा: ईमानदारी; यां-वां: यहां-वहां; दरमियां: बीच  में; हृदय का शत्रु; काफ़िर:नास्तिक; तन्क़ीद: टिप्पणी, समीक्षा; इल्मे-सुख़न: सृजन-कला; मुताबिक़: अनुरूप; आज़ारे-दिल: हृदय-रोग, प्रेम-रोग; शिफ़ा: आरोग्य्

शनिवार, 18 जनवरी 2014

महफ़िल की ख़लाओं से

हर    ज़ख़्म    सुलगता    है    यारों   की    दुआओं  से
पर    बाज़    नहीं    आते     कमबख़्त      जफ़ाओं  से

ईमां-ए-दुश्मनां        ने        उम्मीद      बचा     रक्खी
बेज़ार    हुए    जब-जब     अपनों     की   अनाऑ  से

क्यूं    शम्'अ    बुझाती    हैं  मुफ़लिस  के   घरौंदे  की
ये:      राज़      कोई      पूछे      गुस्ताख़     हवाओं  से

हम    दूर   आ    चुके    हैं    दुनिया    के    दायरों   से
आवाज़   न  अब    दीजे   महफ़िल   की   ख़लाओं  से

रहने   दे   ऐ   मुअज़्ज़िन   वो:   वक़्त    अलहदा   था
होता    था    उफ़क़    रौशन    जब   तेरी   सदाओं  से

गिन-गिन    के    रोटियां   हैं,   राशन    है   शराबों  पे
घर  क्या  बुरा  था  हमको   जन्नत  की    फ़ज़ाओं  से

मस्जिद  का  मुंह  न  देखा   मुश्किल  पड़ी  जो  हमपे
क्या    ख़ाक     दुआ    मांगें    पत्थर   के   ख़ुदाऑ  से  !

                                                                                ( 2014 )

                                                                            -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: ज़ख़्म: घाव;  कमबख़्त: अभागे; जफ़ाओं: अन्यायों, अत्याचारों; बेज़ार: दु:खी; अनाओं: अहंकारों; मुफ़लिस: विपन्न, निर्धन; गुस्ताख़: उद्दण्ड;  महफ़िल की ख़लाओं: सभा के एकांतों; मुअज़्ज़िन: अज़ान देने वाला;  अलहदा: भिन्न, अलग; उफ़क़: क्षितिज; 
रौशन: प्रकाशमान;  फ़ज़ाओं: शोभाओं, रंगीनियों। 

शुक्रवार, 17 जनवरी 2014

... हिजाबे-ख़ुदा !

ज़िद  नहीं  है  मगर  आज  दीदार  हो
तूर  से  फिर  मरासिम  का  इज़हार  हो

इश्क़  हो  या  महज़  आपकी  दिल्लगी
ये:  सियासत  मगर  आख़िरी  बार  हो

सात  तालों  में  दिल  की  हिफ़ाज़त  करें
आपको  ज़िंदगी  से  अगर  प्यार  हो

ज़ख़्म  हों  दर्द  हो  अश्क  हों  आह  हो
दुश्मनों  को  न  उल्फ़त  का  आज़ार  हो

लड़खड़ाते  रहें  हम  क़दम-दर-क़दम
वक़्त  की  तेज़  इतनी  न  रफ़्तार  हो

दीद  को  आपकी  ज़िंदगी  छोड़  दें
कोई  हम-सा  जहां  में  परस्तार  हो

ज़रिय:-ए-दुश्मनी  है  हिजाबे-ख़ुदा
क्यूं  इबादत  में  पर्दों  की  दीवार  हो ?!

                                                    ( 2014 )

                                               -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: दीदार: दर्शन; तूर: अरब में एक पर्वत, जिस पर चढ़ कर हज़रत मूसा ( अ.स.) ख़ुदा से वार्त्तालाप करते थे; मरासिम: सम्बंध; इज़हार: प्रदर्शन; उल्फ़त  का  आज़ार: प्रेम-रोग; दीद: 'दीदार' का लघु-रूप, दर्शन; परस्तार: पूजा करने वाला; ज़रिय:-ए-दुश्मनी: शत्रुता का उपकरण;  हिजाबे-ख़ुदा: ख़ुदा का पर्दा।


बुधवार, 15 जनवरी 2014

... ख़ंजर नहीं मिले !

इक  हम  हैं,  हमें  दोस्तों  के  घर  नहीं  मिले
इक  वो:  हैं,  जिन्हें  वक़्त  पे  ख़ंजर  नहीं  मिले

क्यूं  कर  न  मुक़दमा-ए-हत्क  हो  हुज़ूर  पर
दावत  की  बात  कह  के  वक़्त  पर  नहीं  मिले

शाहों  से  मुलाक़ात  हुई  जब  कभी  कहीं
दुनिया  गवाह,  हम  कभी  झुक  कर  नहीं  मिले

नाबीना    आईनों   के     ख़रीदार    हो  गए
बीनाईयों  को   हुस्न  के  मंज़र  नहीं  मिले 

जम्हूरे-हिंद  हो  के:  निज़ामे-अमेरिका
इंसान  ख़ासो-आम  बराबर  नहीं  मिले

जन्नत  से  लौट  आए  मियां  शैख़  तश्न: लब
हूरों  के  यां  शराब-ओ-साग़र  नहीं  मिले

इल्ज़ामे-कुफ़्र  रिंद  पे  आयद  न  हो  सका
का'बे  में  उसे  लोग  मुनव्वर  नहीं  मिले !

                                                                     ( 2014 )

                                                                -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ख़ंजर: वध के काम आने वाली क्षुरी; मुक़दमा-ए-हत्क : मानहानि का वाद; नाबीना: दृष्टि-हीन; बीनाई: सौन्दर्य समझ सकने वाली दृष्टि; हुस्न  के  मंज़र : सौन्दर्य के दृश्य;  जम्हूरे-हिंद: भारत गणराज्य;  निज़ामे-अमेरिका: अमेरिका का राज्य; ख़ासो-आम: विशिष्ट और साधारण;  शैख़: धर्मोपदेशक; तश्न: लब: प्यासे होंठ; हूरों: अप्सराओं; यां: यहां, स्थान में, घर में; इल्ज़ामे-कुफ़्र: नास्तिकता का आरोप; 
रिंद: पियक्कड़; आयद: लागू; मुनव्वर: आत्मिक रूप से प्रकाशित 
का'बा: सऊदी अरब की राजधानी मक्क: शरीफ़ में एक पवित्र स्थान जिसे मुस्लिम-परंपरा में ईश्वर का घर एवं पृथ्वी का केन्द्र माना जाताहै। 

* अंतिम पंक्ति के लिए, युवा शायर भाई रामनाथ शोधार्थी का आभार। 

सोमवार, 13 जनवरी 2014

सुकूं उन्हें न हमें ...

मेरे  नसीब,  मेरी  मुफ़लिसी  की  बातों  से
निकल  गए  हैं  शबो-सहर  मेरे  हाथों  से

हमारे  हैं  तो  हर  सफ़र  में  साथ-साथ  चलें
सुकूं  उन्हें  न  हमें  चंद  मुलाक़ातों  से

मेरे  मकां  पे  कोई  रोज़  शम्'अ  रखता  है
के:  हम  न  सोए  न  जागे  हज़ार  रातों  से

कोई  बताए  कि  हम  किस  पे  ऐतबार  करें
निकलते  आ  रहे  हैं  शैख़  ख़राबातों  से

हुआ  करें  वो:  शहंशाह  बला  से  अपनी
ख़ुदा  बचाए  मेरे  रिज़्क़  को  ख़ैरातों  से

ख़ुदा  की  ज़ात  पे  हम  क्यूं  न  अक़ीदा  रक्खें
पिघल  गए  हैं  कई  कोह  मुनाजातों  से !

                                                                  ( 2014 )

                                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: नसीब: भाग्य, मुफ़लिसी: विपन्नता; रात्रि-प्रात:; सुकूं: संतोष; मकां: समाधि, क़ब्र, घर; ऐतबार: विश्वास; शैख़: धर्मोपदेशक; ख़राबातों: मदिरालयों; बला  से: दुर्भाग्य से; रिज़्क़: दैनिक भोजन; ख़ैरातों: दान-दक्षिणाओं; ज़ात: अस्तित्व; अक़ीदा: आस्था; कोह: पर्वत; मुनाजातों: प्रार्थनाओं। 

रविवार, 12 जनवरी 2014

जोशे-मौजे-चनाब...

ख़्वाब    ताज़ा  गुलाब  होते  हैं
ख़्वाहिशों  का  जवाब  होते  हैं

वो:  अगर  बेख़ुदी  में  मिलते  हैं
शायरी  की    किताब  होते  हैं

दिल  में  अरमान  जब  मचलते  हैं
जोशे - मौजे - चनाब  होते  हैं

बर्क़  जैसे  दिलों  पे  गिरती  है
आप  जब   बे-हिजाब  होते  हैं

रोज़  हम  राह  से  गुज़रते  हैं
रोज़    ईमां    ख़राब   होते  हैं

ख़्वाब  में  मिल  गए, ग़नीमत है 
घर  में  कब-कब  जनाब  होते  हैं ?

अश्के-तन्हाई  देख  लें  गिन  कर
हसरतों  का  हिसाब  होते  हैं !

                                              ( 2014 )

                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ख़्वाहिशों: इच्छाओं; बेख़ुदी: आत्म-विस्मृति; बर्क़: तड़ित, आकाशीय विद्युत; बे-हिजाब: निरावरण; 
जोशे-मौजे-चनाब: चनाब, पंजाब में बहने वाली एक नदी; की लहरों का उत्साह; अश्के-तन्हाई: एकांत के अश्रु । 

शनिवार, 11 जनवरी 2014

...आसार नहीं हैं !

यूं  इश्क़  के  मराहिल  दुश्वार  नहीं  हैं 
बस  हम  ही  ख़ुद  से  इतने  बेज़ार  नहीं  हैं 

देखो,  हमारे  तन पर  क़ीमत नहीं  लिखी 
इंसां  हैं  हम  मता-ए-बाज़ार  नहीं  हैं 

बेचें  कि  मुफ़्त  दें  दिल  मसला  उन्हीं  का  है 
हम  रास्ते  में  उनके   दीवार  नहीं  हैं 

शायद  शहर  का  मौसम  हो  ख़ुशनुमां  कभी 
फ़िलहाल  इस  ख़बर  के  आसार  नहीं  हैं 

ले  जाएं  लूट  कर  हम  दिल  आपका  कहीं 
शाइर  हैं  कोई  तुर्क-ओ-तातार  नहीं  हैं 

नंगे-जम्हूर  सामने  लाता  नहीं  कोई 
अख़बार  सरकशी  को  तैयार  नहीं  हैं 

तेरी  नवाज़िशों  की  चाहत  नहीं  हमें 
मुफ़लिस  ज़रूर  हैं  पर  लाचार  नहीं  हैं ! 

                                                        ( 2014 ) 

                                                  -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: इश्क़: अनुराग; मराहिल: पड़ाव; दुश्वार: कठिन; बेज़ार: अप्रसन्न;  मता-ए-बाज़ार: बाज़ार का सामान; मसला: समस्या; ख़ुशनुमां: प्रसन्नता-दायक, सुखद; आसार: लक्षण; तुर्क-ओ-तातार: तुर्की और वहीं के एक प्रदेश, तातार के निवासी जो मध्य-युग में किसी भी देश पर हमला करके लूट-पाट करके भाग जाते थे; नंगे-जम्हूर: लोकतंत्र की निर्लज्जता; सरकशी: विद्रोह, अवज्ञा;  नवाज़िशों: कृपाओं; 
मुफ़लिस: निर्धन, विपन्न। 
                                             


शुक्रवार, 10 जनवरी 2014

इश्क़ का हौसला...!

दोस्त  अक्सर  वफ़ा  नहीं  करते
दोस्तों  को   ख़फ़ा  नहीं  करते

आप  जीते  रहें  तकल्लुफ़  में
फ़ासले  यूं  मिटा  नहीं  करते

इब्ने-इंसां  कमाल  की  शै  हैं
सिर्फ़  मरके  जफ़ा  नहीं  करते

क्यूं  शिकायत  न  हो  हमें  कहिए
आप  वादे  वफ़ा  नहीं  करते

दूर  रहिए  हसीन  चेहरों  से
ये:  इरादे  सफ़ा  नहीं  करते

इश्क़-यारी,  मुहब्बतो-उल्फ़त
टोटके  हैं,  शिफ़ा  नहीं  करते

हैं  वही  बदनसीब  जो  खुल  कर
इश्क़  का  हौसला  नहीं  करते 

क्या  कहें  हम  कि  आप  महफ़िल  से
दुश्मनों  को  दफ़ा  नहीं  करते

चल  पड़े  हैं  अवाम  के  दस्ते
कारवां  ये:  रुका  नहीं  करते  !

                                                ( 2014 )

                                          -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ:  वफ़ा: निर्वाह;  ख़फ़ा: रुष्ट; तकल्लुफ़: औपचारिकता; फ़ासले: अंतराल; इब्ने-इंसां: मनुष्य-संतान;  शै: जीव; 
जफ़ा: द्वेष, बे-ईमानी; वफ़ा: पूर्ण; हसीन: सुंदर; सफ़ा: सु-स्पष्ट; इश्क़-यारी: आसक्ति और मित्रता; मुहब्बतो-उल्फ़त: प्रेम और स्नेह; 
शिफ़ा: आरोग्य; महफ़िल: गोष्ठी, सभा; दफ़ा: दूर; अवाम: आम जन; दस्ते: सैन्य-दल; कारवां: यात्री-दल।   

गुरुवार, 9 जनवरी 2014

रौशनी बंदगी की !

बात    जब   ज़िंदगी  की   आती  है
याद    अपनी    ख़ुदी  की  आती  है

काट   कर    उम्र     जंगे-हस्ती  में
राह     घर  वापसी  की    आती  है

दाग़ जिस  दिन  निकल  गए  दिल  के
रात  अक्सर  ख़ुशी  की  आती  है

हो  थकन  ज़ीस्त  में  तवाज़ुन  की
नींद  तब    बेख़ुदी  की    आती  है

तोड़  दे  दिल  सहर  किसी  का  जब
शाम     बादाकशी   की   आती  है

मग़रिबे-ज़ीस्त  की   सियाही  में
रौशनी     बंदगी   की     आती  है

चल  दिए  दोस्त  हम,  ख़ुदा हाफ़िज़
पालकी    ज़िंदगी  की    आती  है  !

                                                  ( 2014 )

                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ख़ुदी: स्वाभिमान; जंगे-हस्ती: जीवन-संग्राम; दाग़: दोष; ज़ीस्त: जीवन; तवाज़ुन: संतुलन;  बेख़ुदी: आत्म-विस्मृति; 
सहर: उष: काल; बादाकशी: मद्य-पान; मग़रिबे-ज़ीस्त: जीवन-संध्या; सियाही: अंधकार; रौशनी: प्रकाश; बंदगी: भक्ति, आध्यात्म; 
ख़ुदा हाफ़िज़: ईश्वर रक्षा करे; पालकी: विमान, अर्थी।

बुधवार, 8 जनवरी 2014

ख़ुदा से सौदा ...!

फ़रेब  दिल  का  मिटा  लिया  क्या
नज़र  से    पर्दा   हटा   लिया  क्या

किसी  को  धोखा  किसी  पे  तुहमत
वफ़ा  से   दामन  छुटा  लिया  क्या

गिरा  चुके  थे  जो  अपना  ईमां
ख़ुदा  ने  उनको  उठा  लिया  क्या

तमाम  ज़ुल्मात  पे  आप  चुप  हैं
ज़ुबां  को  अपनी  कटा  लिया  क्या

नफ़स-नफ़स  में  जो  लफ़्ज़े-तू  है
मेयार  अपना   घटा  लिया  क्या 

ये:  लो,  फ़रिश्ते  भी  आ  गए  हैं
अज़ल  का  सामां  जुटा  लिया  क्या

न  फ़िक्रे-उक़्बा,  न  ख़ौफ़े-दुनिया
ख़ुदा  से  सौदा  पटा  लिया  क्या ?!

                                                     ( 2014 )

                                              -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: फ़रेब: छद्म; नज़र से पर्दा: दृष्टि पर पड़ा आवरण;  तुहमत: दोषारोपण; वफ़ा: सत्यता; दामन: आंचल; 
ईमां: आस्था;  ज़ुल्मात:  अत्याचार (बहु.); ज़ुबां: जिव्हा; सांस-सांस, बात-बात; लफ़्ज़े-तू: 'तू' का संबोधन, अभद्र भाषा; 
मेयार: सामाजिक प्रतिष्ठा; फ़रिश्ते: मृत्यु-दूत; अज़ल  का  सामां: मृत्यु का सामान, प्रबंध; 
फ़िक्रे-उक़्बा: परलोक की चिंता;  ख़ौफ़े-दुनिया: संसार या लोक-लाज का भय।  









मंगलवार, 7 जनवरी 2014

ये: ज़िंदा दिली है..!

जिन्हें  दिल  लगाने  की  आदत  नहीं  है
उन्हें  भी    ग़मे-दिल  से   राहत  नहीं  है

वो:  नाहक़  हमें  अपना  दुश्मन  न  समझें
हमारी     किसी    से    अदावत  नहीं  है

बड़े  ख़ुश  हुए  आज  ये:  जान  कर  हम
के:  उनको  भी  हमसे  शिकायत  नहीं  है

तआनुक़  से   घबरा  गए    आप  यूं   ही
ये:   ताबिश-ए-ख़ूं    है     हरारत  नहीं  है

तुम्हें  अपने  दिल  में  बिठाएं  तो  कैसे
तुम्हारी     अदा   में     शराफ़त   नहीं  है

मेरे     मुस्कुराने    पे    नाराज़    क्यूं   हैं
ये:    ज़िंदा दिली    है     शरारत   नहीं  है

वो:  कैसा  ख़ुदा  है  के:  जिसकी  नज़र  में
फ़क़त      दुश्मनी     है   इनायत  नहीं  है  !

                                                              ( 2014 )

                                                       -सुरेश  स्वप्निल  

शब्दार्थ: ग़मे-दिल: हृदय की पीड़ा; नाहक़: व्यर्थ; अदावत: शत्रुता; तआनुक़: आलिंगन; 
ताबिश-ए-ख़ूं: रक्त की ऊष्णता; हरारत: ज्वर; शराफ़त: सभ्यता; ज़िंदा दिली: जीवंतता; फ़क़त: मात्र; इनायत: कृपा। 

रविवार, 5 जनवरी 2014

...उठा लें दिल को !

आप  चाहें  तो  चुरा  लें  दिल  को
राज़दां  ख़ास  बना  लें   दिल  को

उफ़!  ये:  गुस्ताख़ियां  हसीनों  की
जां  बचाएं  के:  संभालें  दिल  को

ये:  तरीक़ा  अगर  मुनासिब  हो
आप  दिन-रात  उछालें  दिल  को

इश्क़  इतना  बुरा  नहीं  शायद
लोग  इक  बार  मना  लें  दिल  को

है  शहर  में  अदब  अभी  बाक़ी
राह  में  यूं  न  निकालें  दिल  को

है  यही  फ़र्ज़  भी,  शराफ़त  भी
बदगुमानी  से  बचा  लें  दिल  को

छोड़  आए  हैं  आपके  दर  पर
काम  आए  तो  उठा  लें  दिल  को !

                                                ( 2014 )

                                         -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: राज़दां: रहस्य जानने वाला; गुस्ताख़ियां: धृष्टताएं; मुनासिब: उचित; अदब: शिष्टाचार; बदगुमानी: कु-धारणाएं; दर: द्वार ।

हवाओं से उम्मीद !

हमको  अब  भी   वफ़ाओं  से  उम्मीद  है
दोस्तों       की      दुआओं  से  उम्मीद  है

वो:  कभी  हम  पे  शायद  मेहरबां  न  हों
उनकी  क़ातिल   अदाओं  से   उम्मीद  है

साथ   दे    या   न  दे    ये:   ज़माना  हमें
आसमानी      सदाओं    से     उम्मीद  है

महफ़िलें  हैं   उन्हीं  की   जो  ज़रयाब  हैं
मुफ़लिसों   को  ख़लाओं  से   उम्मीद  है

आज   मौसम   हमारे    मुआफ़िक़  नहीं
कल   बदलती   हवाओं   से    उम्मीद  है

एक   दिन     राह   पर    लाएंगे  ज़िंदगी
मुल्क   को    रहनुमाओं   से   उम्मीद  है

अर्श   तो       हस्बे-मामूल      नाराज़  है
क्या  कहें   किन  ख़ुदाओं  से  उम्मीद  है  !

                                                       ( 2014 )

                                                 -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: ज़रयाब: समॄद्ध; मुफ़लिसों: निर्धनों; ख़लाओं: निर्जन स्थानों; मुआफ़िक़: समुचित, योग्य; 
रहनुमाओं: नेताओं; अर्श: आकाश, ईश्वर।

शनिवार, 4 जनवरी 2014

...तो बड़ी बात है !

दिल  किसी  से  मिले  तो  बड़ी  बात  है
आशना  बन  सके  तो  बड़ी  बात  है

इश्क़  बे-ताब  हो  ये:  ज़रूरी  नहीं
रूह  में  आ  बसे  तो  बड़ी  बात  है

हुस्न  की  सादगी  देख  कर  आसमां
मरहबा  कह  उठे  तो  बड़ी  बात  है

आंख  से  अश्क  गिरना  तो  मामूल  है
क़तर:-ए-ख़ूं  गिरे  तो  बड़ी  बात  है

सुनते-सुनते  तेरे  दर्द  की  दास्तां
आसमां  रो  पड़े  तो  बड़ी  बात  है

कोह  पर  आ  गए  हैं  अज़ां  के  लिए
मोजज़ा  हो  रहे  तो  बड़ी  बात  है

तीरगी  में  तुझे  याद  करते  हुए
शम्'ए-दिल  जल  उठे  तो  बड़ी  बात  है !

                                                          ( 2014 )

                                                   -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: आशना: साथी; बे-ताब: विकल; मरहबा: धन्य, साधु-साधु;  अश्क: अश्रु; मामूल: सामान्य बात, सहजता; 
क़तर:-ए-ख़ूं: रक्त की बूंद; दास्तां: आख्यान, कथा; आसमां: आकाश, ईश्वर; कोह: पर्वत; अज़ां: ईश्वर के नाम की पुकार; 
मोजज़ा: चमत्कार; तीरगी: अंधकार; शम्'ए-दिल: मन का दीप। 

गुरुवार, 2 जनवरी 2014

...दुआएं कम हैं !

जो  इब्तिदा  में  ही  चश्म  नम  हैं
तो   आइंद:   भी   कई   सितम  हैं

सनम  अगर  हैं    हमारे  दिल  में
तो उनकी नज़्रों में हम ही  हम  हैं

ख़फ़ा  अगर  हों  तो  जान  ले  लें
हुज़ूर    यूं   तो    बहुत   नरम  हैं

इधर  हैं    तूफ़ां    उधर  तजल्ली
मेरे   मकां   पे    बड़े     करम  हैं

ज़ुबां   खुले   तो  सलीब  तय  है
मगर  वफ़ा  पे   दुआएं  कम  हैं

हमीं   ख़ुदा  को   सफ़ाई  क्यूं  दें
हमें  भी   उनपे   कई   वहम  हैं

यहां  का  सज्दा  वहां  न  कीजो
ख़ुदा,  ख़ुदा  हैं;  सनम,  सनम  हैं !

                                                    ( 2014 )

                                              -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: इब्तिदा: आरंभ; चश्म नम: आंखें भीगी; आइंद:: आगे चल कर; सितम: अत्याचार; सनम: प्रिय; नज़्रों: दृष्टि; ख़फ़ा: रुष्ट; हुज़ूर: श्रीमान, मालिक, ईश्वर; तूफ़ां: झंझावात; तजल्ली: आध्यात्म का प्रकाश; मकां: आवास, समाधि, क़ब्र; ज़ुबां: जिव्हा; सलीब: सूली; 
वफ़ा: निर्वाह, आस्था; दुआएं: शुभकामनाएं; वहम: संदेह, आशंकाएं; सज्दा: भूमि पर शीश नवाना।


यौमे-शहादत: कॉमरेड सफ़दर हाश्मी

वह  1  जनवरी, 1989  की सुबह थी…
कॉमरेड सफ़दर 'जन नाट्य मंच' के साथियों के साथ ग़ाज़ियाबाद म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन के  चुनाव में CPI (M) के उम्मीदवार की हिमायत में नाटक 'हल्ला बोल' खेल रहे थे। उसी वक़्त, कॉँग्रेस के उम्मीदवार का काफ़िला वहां से गुज़रा। इन ग़ुंडों ने नाटक रोकने के लिए कहा, जिस पर कॉमरेड सफ़दर ने उन लोगों से दूसरे रास्ते से जाने के लिए या कुछ देर इंतज़ार करने को कहा…
उन ख़ूंख़्वार दरिन्दों ने लाठी, लोहे की रॉड्स वग़ैरह से नाटक खेल रहे साथियों पर हमला कर दिया। CITU के एक कारकुन की वहीं शहादत हो गई जबकि हमले में बुरी तरह घायल कॉमरेड सफ़दर की शहादत अगले रोज़, यानि आज से ठीक 25 बरस पहले; 2  जनवरी 1989 को हुई …
शहादत के वक़्त कॉमरेड सफ़दर की उम्र सिर्फ़ 34 बरस थी  …
आज हम अपने बिछड़े साथी कॉमरेड सफ़दर हाश्मी को याद करते हुए, कॉमरेड फ़ैज़ अहमद 'फ़ैज़' मरहूम का लिखा हुआ तराना ख़ेराजे-अक़ीदत के तौर पर पेश कर रहे हैं:

दरबारे-वतन  में   जब  इक  दिन  सब  जाने  वाले  जाएंगे
कुछ  अपनी  सज़ा  को  पहुंचेंगे  कुछ  अपनी  जज़ा  ले  जाएंगे

ऐ  ख़ाक नशीनों  उठ  बैठो  वह  वक़्त  क़रीब  आ  पहुंचा  है
जब  तख़्त  गिराए  जाएंगे  जब  ताज  उछाले  जाएंगे

अब  टूट  गिरेंगी  ज़ंजीरें  अब  ज़िंदानों  की  ख़ैर  नहीं
जो  दरिया  झूम  के  उट्ठे  हैं  तिनकों  से  न  टाले  जाएंगे

कटते  भी  चलो  बढ़ते  भी  चलो  बाज़ू  भी  बहुत  हैं  सर  भी  बहुत
चलते  भी  चलो  के:  अब  डेरे  मंज़िल  ही  पे  डाले  जाएंगे

ऐ  ज़ुल्म  के  मारो  लब  खोलो  चुप  रहने  वालो  चुप  कब  तक
कुछ  हश्र  तो  उनसे  उट्ठेगा  कुछ  दूर  तो  ना'ले  जाएंगे  !

                                                                                             -फ़ैज़ अहमद 'फ़ैज़'

शब्दार्थ: जज़ा: पुरस्कार; ख़ाक नशीनों: दीन-हीनों; ज़िंदानों: बंदी-गृहों;  दरिया: नदी;   ज़ुल्म: अन्याय; हश्र: झंझावात; ना'ले: पुकार, शोर।