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गुरुवार, 10 अप्रैल 2014

सरे-आम सज़ा दे देना

फिर  किसी  रोज़  दवा  दे  देना
आज  ज़ख़्मों  को  हवा  दे  देना

हस्बे-मामूल  जफ़ा  करते  हो
हिज्र  के  रोज़  वफ़ा  दे  देना

हम  बुरे  वक़्त  को  निभा  लेंगे
आप  बस  एक  दुआ  दे  देना

हक़्क़े-माशूक़  आप  ही  जानें
ज़ीस्त  देना  कि  क़ज़ा  दे  देना

क्या  सियासत  नहीं  फ़रिश्तों  की
हर  सितमगर  को  रज़ा  दे  देना

रहबरे-क़ौम  का  तरीक़ा  है
होश  के  वक़्त  नशा  दे  देना

बात  मक़्ते  तलक  पहुंच  जाए
फिर  सरे-आम  सज़ा  दे  देना  !

                                                    (2014)

                                           -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: हस्बे-मामूल: दैनंदिन का व्यवहार, नियम से; जफ़ा: अनीति, अत्याचार; हिज्र: विछोह; वफ़ा: आस्था; हक़्क़े-माशूक़: प्रिय का अधिकार; ज़ीस्त: जीवन; क़ज़ा: मृत्यु; फ़रिश्तों: देवताओं; सितमगर: अत्याचारी; रज़ा: अनुशंसा, अनुमति, स्वीकृति; 
रहबरे-क़ौम: राष्ट्र-नायक;  मक़्ता: ग़ज़ल का अंतिम शे'र, संपूर्णता।