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रविवार, 21 अप्रैल 2013

दिन-ब-दिन फ़ाक़ाकशी

आमदन    है,    बेकसी   है    और  बस
दिन-ब-दिन  फ़ाक़ाकशी  है  और  बस

हौसले    पे    जी    रहे    हैं      ज़िंदगी
क़ुव्वतों  में   कुछ  कमी  है  और  बस

मुल्क   के    अहवाल    उनसे   पूछिए
जिनके   आगे   बेबसी   है   और  बस

भूख   है,    महंगाईयां   हैं,     क़र्ज़   है
इक  तरीक़ा   ख़ुदकुशी  है   और  बस

चंद    उमरा      के      हवाले    माशरा
लूट   की    दूकां   सजी  है    और  बस

चार   टुकड़े   फेंक   के   सरकार   ख़ुश
हर  तरफ़  भगदड़  मची  है  और  बस

ऐश    करता    है    हमारे    रिज़्क़  पर
शाह   की   'दरियादिली'   है  और  बस

ये:   हुकूमत    और  है    दो-चार   दिन
इक   उम्मीद-ए-रौशनी  है   और  बस !

कौन-क्या  ले  जाएगा  मुल्क-ए-अदम
मुख़्तसर-सी   ज़िंदगी   है    और  बस !

                                                   ( 2013 )

                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: आमदन: आय, बेकसी: अशक्तता; फ़ाक़ाकशी: भूखे रहना; क़ुव्वत: सामर्थ्य; अहवाल: हाल ( बहुव.); बेबसी: वश न चलना;  ख़ुदकुशी: आत्महत्या;  उमरा: अमीर का बहुव., संपन्न लोग; माशरा: अर्थव्यवस्था;   दूकां: दूकान; रिज़्क़: भोजन;   'दरियादिली': दानशीलता; मुल्क-ए-अदम: परलोक; मुख़्तसर: संक्षिप्त।