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रविवार, 13 अप्रैल 2014

राज़ अफ़शा न हो...

आह  निकली  है  ग़मगुसारों  की
जान  जाए  न  बेक़रारों  की 

आए  हैं  बाग़  में  सनम  जबसे
गुमशुदा  है  अना  बहारों  की

राज़  अफ़शा  न  हो  शहंशह  का
सांस  अटकी  है  राज़दारों  की

जो  कहें  वो: ज़ुबां-ए-दिल  से  कहें
आज  क़ीमत  नहीं  इशारों  की 

फ़िक्र  करते  नहीं  सियासतदां 
मुल्क  में  पड़  रही  दरारों  की

तख़्त  पर  एक  बार  बैठे,  तो
कौन  सुनता  है  ख़ाकसारों  की

मुल्क  हो  आग  के  हवाले  जब
बात  क्या  कीजिए  शरारों  की  !

                                                     (2014)

                                             -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ग़मगुसार: दूसरों का दु:ख दूर करने वाले; बेक़रार: व्यथित, व्याकुल; अना: घमंड, अहंकार; राज़: रहस्य; अफ़शा: प्रकट; राज़दार: रहस्य जानने वाले; ज़ुबां-ए-दिल: हृदय से; सियासतदां: राजनैतिक लोग; ख़ाकसार: दलित/वंचित; शरारे: चिंगारियां।