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मंगलवार, 18 नवंबर 2014

...हमारी छुवन में

रहे  ही  कहां  हम  तुम्हारे  ज़ेह् न  में
न  ख़ामोशियों  में,  न  शे'रो-सुख़न  में

नए  ज़ाविए  से  पढ़ो  तो  किसी  दिन
बहुत  कुछ  मिलेगा  हमारी  कहन  में

बहारें    गले   यूं    मिलीं    दोस्तों   से
हरारत   बढ़ा  दी  शह् र   के  बदन  में

फ़क़त  नर्म  जज़्बात  की  चांदनी  है
शरारे     नहीं  हैं    हमारी   छुवन  में

जिसे   चाहिए,     देनदारी   चुका  दे
ख़ुदा  के  यहां  दिल  पड़ा  है  रहन  में

न  साक़ी,  न  पैमां,  न  शैख़ो-मुअज़्ज़िन
कहां   आ  फंसे  हम,  ख़ुदा  के  वतन  में !

ग़ज़ब  की  कशिश  है,  तुम्हारी  अज़ां  में
फ़रिश्ते   उतर  आए  हैं    अंजुमन  में  !


                                                                 (2014)

                                                         -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ज़ेह् न: मस्तिष्क, विचार; शे'रो-सुख़न: शे'र/काव्य और सृजन; ज़ाविए: कोण; कहन: कथन-शैली; हरारत: ऊष्मा, तापमान; 
बदन: शरीर; फ़क़त: मात्र; नर्म: कोमल; जज़्बात: भावनाएं; शरारे: चिंगारियां; छुवन: स्पर्श; देनदारी: ऋण; रहन: गिरवी; साक़ी: मदिरा देने वाला; पैमां: मदिरा-पात्र; शैख़ो-मुअज़्ज़िन: धर्मभीरु और अज़ान देने वाला; ग़ज़ब की: चमत्कारिक; कशिश: आकर्षण; फ़रिश्ते: देवदूत; अंजुमन: सभा।