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गुरुवार, 17 दिसंबर 2015

हौसला कमीनों का

ज़िक्र  मत  छेड़िए  हसीनों  का
रंग  धुल  जाएगा  जहीनों  का

वक़्त  बेवक़्त  याद  मत  कीजे
ज़ख़्म  खुल  जाएगा  महीनों  का

शायरी  दिल  दिमाग़  की  शै  है
यह  करिश्मा  नहीं  मशीनों  का

ख़ूबसूरत  लिबास  मत  देखो
सांप  है  सांप  आस्तीनों  का

रोज़  तकरीर  ताजदारों  की
रोज़  मजमा  तमाशबीनों  का

दंग  है  आज  फ़ौजे-शाही  भी
देख  कर  हौसला  कमीनों  का

जान  गिर्दाब  में  गई  जिसकी
नाख़ुदा  था  कई  सफ़ीनों  का

बढ़  रहा  है  ज़मीने-मोमिन  से
फ़ायदा  अर्श  के  मकीनों  का  !

                                                           (2015)

                                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ज़िक्र: प्रसंग; ज़हीनों: बुद्धिजीवियों, विद्वानों; वक़्त बेवक़्त: समय-असमय; ज़ख़्म: घाव; शै: वस्तु; करिश्मा:चमत्कार; 
लिबास: परिधान; तकरीर: भाषण; ताजदारों: शासकों; मजमा: भीड़; तमाशबीनों: दर्शकों;  दंग:चकित; फ़ौजे-शाही: राजकीय सेना; हौसला:उत्साह, वीरता; कमीनों: मज़दूर-कामगार; गिर्दाब: भंवर; नाख़ुदा: मल्लाह; सफ़ीनों: नावों; ज़मीने-मोमिन:भक्तों/ आस्तिकों की भूमि; अर्श:आकाश, स्वर्ग; मकीनों:निवासियों।