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सोमवार, 10 जून 2013

दस्तरख़्वान सजा है...

मैं  हूं  तू  है  और  ख़ुदा  है  अपना  घर
वाल्दैन  की  नेक  दुआ  है  अपना  घर

टूटे     और     थके-हारे    इंसानों    को
उम्मीदों  की  एक  शुआ  है  अपना  घर

शानो-शौक़त  इशरत  के  सामान  नहीं
मस्जिद-सा  सीधा-सादा  है  अपना  घर

दस्तरख़्वान  सजा  है  जो  है  हाज़िर  है
हर मुफ़लिस पर खुला हुआ है अपना घर

शाम-सुबह   जी  हल्का  करने   आते  हैं
दीवानों   ने    देख  रखा  है    अपना  घर

एहतराम  औ' इश्क़  रवायत  है  जिसकी
दुनियां  में   जाना-माना  है   अपना  घर।

व्हाइट हाउस से   दस जनपथ तक  शर्त्त  रही
हर  पैमाने  पर   अच्छा  है   अपना  घर !

                                                       ( 2013 )

                                                -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: वाल्दैन: माता-पिता; शुआ: किरण; शानो-शौक़त: ऐश्वर्य और समृद्धि;  इशरत: विलासिता; दस्तरख़्वान: सामूहिक भोजन हेतु बिछाया जाने वाला आसन; मुफ़लिस: विपन्न, निर्धन; एहतराम: सम्मान; रवायत: परंपरा।