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सोमवार, 11 मई 2015

ख़्वाब का अज़्म ...

देखिए,  हम  ग़ज़ल  नहीं  कहते
कहते  थे,  आजकल  नहीं  कहते

अस्ल  को  हम  नक़ल  नहीं  कहते
चश्मे-जां  को  कंवल  नहीं  कहते

तिफ़्ल  हैं, यह  नहीं  समझ  पाते
तरबियत  को दख़ल  नहीं  कहते

ख़्वाब  का  अज़्म  कुछ  अलहदा  है
ख़्वाहिशों  का  बदल  नहीं  कहते

चल  रही  है  महज़  बयांबाज़ी
आंकड़ों  को  फ़सल  नहीं  कहते

रोज़  महंगाई  मुंह  चिढ़ाती  है
वायदों  को  अमल  नहीं  कहते

आप  कह  लें,  अगर  सही  समझें
क़त्ल  को  हम  अदल  नहीं  कहते

ख़ुदकुशी  वक़्त  को  तमाचा  है
पर  इसे  कोई  हल  नहीं  कहते !

                                                              (2015)

                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: अस्ल: वास्तविक, चश्मे-जां: प्रिय के नयन; कंवल: कमल; तिफ़्ल: बच्चे; तरबियत: संस्कार देना; दख़ल: हस्तक्षेप; 
अज़्म: अस्मिता; अलहदा: भिन्न; ख़्वाहिशों : इच्छाओं;   बदल: पर्याय; महज़: केवल;  बयांबाज़ी: भाषण, वक्तव्य देना; 
अमल: क्रियान्वयन; अदल: न्याय; ख़ुदकुशी: आत्महत्या; हल: समाधान ।