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सोमवार, 25 नवंबर 2013

है परेशान ख़ुदा...!

चाक  दामन  उठे  हैं  महफ़िल  से
हाथ    धोते    हुए      रग़े-दिल  से

बेगुनाही         सुबूत        मांगेगी
रू-ब-रू  है   शिकार    क़ातिल  से

चांद   कैसे   तिलिस्म    करता  है
पूछ   लीजे    निगाहे-ग़ाफ़िल   से

वो:  सरे-बज़्म  लग  गए  दिल  से
बात  हमने   निभाई  मुश्किल  से

कोशिशों  में   कमी   उन्हीं  की  है
दूर  जो    रह  गए  हैं   मंज़िल  से

बोल    कश्ती    कहां     डुबोनी  है
नाख़ुदा     पूछता  है    साहिल  से

रोज़  इक  ज़ख़्म  उठा  लाता  है
है  परेशान   ख़ुदा   बिस्मिल  से !

                                             (2013)

                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: चाक  दामन: विदीर्ण हृदय; महफ़िल: गोष्ठी, सभा; रग़े-दिल: हृदय-पिण्ड; बेगुनाही: निर्दोषिता; तिलिस्म: मायाजाल; 
निगाहे-ग़ाफ़िल: सिरफिरे, भ्रमित व्यक्ति की दृष्टि; सरे-बज़्म: भरी सभा में;   कश्ती: नौका; नाख़ुदा: नाविक;   साहिल: तट; 
ज़ख़्म: घाव; बिस्मिल: घायल। 

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