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बुधवार, 8 अक्तूबर 2014

मंहगाई का गहन ...

कल-आज  क़त्ले-आम  का  त्यौहार  तो  नहीं ?
शैतान    कहीं     शाह  पर     सवार  तो  नहीं  ?

सोते  न  जागते  हैं  न  खाते  हैं  चैन  से
फिर  इश्क़  में  जनाब  गिरफ़्तार  तो  नहीं  ?

बेशक़,  हम  आसमां  से  दिले-हूर  ले  उड़े
लेकिन  हम  आपके  भी  गुनहगार  तो नहीं ?

हर  जिन्स  को  लगा  है  मंहगाई  का  गहन
जम्हूर  है,  अवाम  की  सरकार  तो  नहीं  ! 

कहने  को  कह  रहे  हैं  बहुत  कुछ  तमाम  लोग
हालात    बदल  जाएं    ये    आसार  तो  नहीं 

तेवर     ज़रूर     सख़्त   रहे  हों     कभी-कभी 
अफ़सोस !  क़लम  कारगर  हथियार  तो  नहीं !

मुफ़लिस  सही,  फ़क़ीर  सही,  दर-ब-दर  सही
शाही     इनायतों   के     तलबगार     तो  नहीं !

जायज़  है  हक़  हमारा  सुख़न  की  ज़मीन  पर
क़ाबिज़  हैं   जहां  हम,     किराएदार    तो  नहीं  !

अल्लाह    तय  करे    कि  रखेगा     कहां  हमें
हम      मिन्नते-हुज़ूर   को     तैयार   तो  नहीं  !

                                                                         (2014)

                                                                -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: क़त्ले-आम: जन-संहार; दिले-हूर: अप्सरा का हृदय; गुनहगार: अपराधी; जिन्स: उत्पाद, वस्तु; गहन: ग्रहण; जम्हूर: लोकतंत्र; अवाम: जन-साधारण; हालात: परिस्थितियां; आसार: संकेत; तेवर: मुद्राएं; कारगर: प्रभावी; मुफ़लिस: निर्धन; फ़क़ीर: अकिंचन, साधु, भिक्षुक; दर-ब-दर: यहां-वहां भटकने वाला, गृह-विहीन; इनायतों: कृपाओं; तलबगार: अभिलाषी; जायज़: उचित, वैध; हक़: अधिकार; सुख़न: सृजन; क़ाबिज़:आधिपत्य जमाए; मिन्नते-हुज़ूर: ईश्वर की चिरौरी।