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गुरुवार, 1 नवंबर 2012

आदाब अर्ज़
' साझा आसमान ' की शुरुआत के पीछे एक मक़सद यह भी था कि क्यूँ न एक से ज़्यादा शोअरा मिल कर एक ही ज़मीन पर साझा ग़ज़ल कहें ? शुरुआत के लिए , मैं एक मतला पेश कर रहा हूँ और उम्मीद करता हूँ कि आप सभी एक - एक शेर इसमें जोड़ कर एक मुकम्मल ग़ज़ल को शक्ल दें ।

मतला पेश है :

बारीं पे हुस्न , अर्श पे आशिक़ नहीं रहे
दोनों जहान अब किसी लायक नहीं रहे

इसके आगे ज़मीन आपकी है । कलम उठाइये और कह डालिये . दूसरा , तीसरा या चौथा पांचवा शेर ।

आपका - सुरेश स्वप्निल