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गुरुवार, 12 फ़रवरी 2015

आसमां बदल डाला !

मुफ़लिसों  ने  जहां  बदल  डाला
देख  लो,  आसमां   बदल  डाला

थी  हमें  भी  उमीद  जल्वों  की
'आप'ने  तो  समां  बदल  डाला 

बढ़  गए  ज़ुल्म  जब  ग़रीबों  पर
क़ौम  ने  हुक्मरां  बदल  डाला

आहे-मज़्लूम  के  करिश्मे  ने
हर  भरम,  हर  गुमां  बदल  डाला

मंज़िलों  पर  निगाह  थी  जिनकी
वक़्त  पर  कारवां  बदल  डाला

आंधियों  का  कमाल  ही  कहिए
परचमों  का  निशां  बदल  डाला

तोड़  पाए  न  दिल  हमारा  जब
तो  ग़मों  ने  मकां  बदल  डाला !

                                                           (2015)

                                                 -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मुफ़लिसों: वंचितों; जहां: संसार; आसमां: आकाश, संभावनाएं; उमीद: आशा; जल्वों: दर्शनों, दृश्य-विधानों; समां: वातावरण; ज़ुल्म: अत्याचार; क़ौम: राष्ट्र, देश; हुक्मरां: शासक; आहे-मज़्लूम: अत्याचार-पीड़ितों के आर्त्तनाद; करिश्मे: चमत्कार; भरम: भ्रम; 
गुमां: अनुमान; मंज़िलों: लक्ष्यों; कारवां: यात्री-दल; परचमों: ध्वजों; निशां: प्रतीक, चिह्न; मकां: घर । 


जरायम भुला दें ?

चलो,  आज  दिल  को  ठिकाने  लगा  दें
किसी  और  बेहतर  जगह  पर  बसा  दें

नज़र  के  लिए  तरबियत  है  ज़रूरी
इसे  अब  धड़कना,  तड़पना  सिखा  दें

ज़ेह् न  कह  रहा  है,  मियां ! बख़्श  भी  दो
कहां  तक  तुम्हें  ज़िंदगी  की  दुआ  दें

जिगर  है  कि  बस,  डूबना  चाहता  है
न  आएं, मगर  कुछ  मदावा  बता  दें

न  हाथों  में  ताक़त,  न  पांवों  में  क़ुव्वत
क़लम  से  तो  हम  आसमां  को  झुका  दें

हमें  शाह  से     दुश्मनी      तो  नहीं  है
मगर  किस  तरह  से  जरायम  भुला  दें  ?

मिलेंगे  किसी  और  दिन  ज़िंदगी  से
अभी  मौत  से  एक  वादा  निभा  दें  !

                                                                         (2015)

                                                                -सुरेश   स्वप्निल 

शब्दार्थ: तरबियत: संस्कार, शिक्षा; ज़ेह् न: मस्तिष्क; बख़्श: छोड़ना; जिगर: यकृत, साहस; मदावा: उपचार; ताक़त: शक्ति, क़ुव्वत: सामर्थ्य; क़लम: लेखनी; आसमां: आकाश, ईश्वर; ज़रायम: अपराध (बहुव.) ।