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बुधवार, 31 अगस्त 2016

रहनुमा हैं वही ....

लोग  तन्हाइयों  में   फ़ना  हो  गए
जो  बचे  वो  तेरे  आशना  हो  गए

बेरुख़ी  का  न  इल्ज़ाम  दीजे  हमें
आप  ही  ख़ुद  मरीज़े-अना  हो  गए

रहबरी  के  लिए  मुंतख़ब  जो  हुए
रहज़नों  के  वही  सरग़ना  हो  गए

हालिया  दौर  के  रहनुमा  हैं  वही
बीच  दरबार  जो  बरहना  हो  गए

आलिमों  की  ज़ुबां  लड़खड़ाने  लगी
तंज़  के  लफ़्ज़  हम्दो-सना  हो  गए

मालिकों  की  अदा  मख़्मली  हो  गई
दस्ते-मज़दूर    जब    आहना  हो  गए

बुत  ख़ुदा  की  तरह  पेश  आने  लगे
अक्स  ही  वक़्त  का  आइना  हो  गए

आग  फ़िर्दौस  में  हम  लगा  आए  जब
आह  दर  आह  आतशज़ना  हो  गए !

                                                                          (2016)

                                                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: तन्हाइयों : एकांतों; फ़ना : नष्ट; आशना : प्रेमी, साथी; बेरुख़ी : उपेक्षा; इल्ज़ाम : दोष, आरोप; मरीज़े-अना : अहंकार के रोगी; रहबरी : नेतृत्व; मुंतख़ब : निर्वाचित; रहज़नों : डकैतों, लुटेरों; सरग़ना : मुखिया; हालिया : वर्त्तमान; दौर : कालखंड; रहनुमा : मार्गदर्शक; दरबार : राजसभा; बरहना : नग्न, निर्वस्त्र; आलिमों : विद्वानों; ज़ुबां : भाषा; तंज़ : व्यंग्य; लफ़्ज़ : शब्द; हम्दो-सना : विरुद और प्रार्थना; अदा : हाव-भाव; दस्ते-मज़्दूर : श्रमिकों के हाथ; आहना : इस्पाती; बुत : मूर्तियां; पेश : प्रस्तुत, व्यवहार करना; अक्स : प्रतिच्छाया, प्रतिबिंब;  फ़िर्दौस : स्वर्ग; आतशज़ना : चकमक, आग जलाने वाला पत्थर ।









शनिवार, 27 अगस्त 2016

दोज़ख़ के ऐश...

जो  लोग  सर  झुका  के  बग़ल  से  निकल  गए
उनके   उसूल     वक़्त   से   पहले    बदल  गए

हर  हाल  में     नसीब      नए  ज़ख़्म     ही  रहे
दिल  की  लगी  बुझी  तो   मेरे  हाथ   जल  गए

साक़ी !    तेरा  रसूख़    किसी  ने     चुरा  लिया
ले  देख    हम    चढ़ा  के    सुराही   संभल  गए

जिनको    तलाशे-ख़ुल्द  थी    सब   बेइमान  थे
दोज़ख़  के  ऐश   देख  के   अरमां   मचल  गए

इन्'आम -ओ- इकराम  की   हस्रत  कहां  नहीं
ज़र   देख  कर    ज़मीर     हज़ारों  फिसल  गए

देखे   हैं       ताजदार      हमारे        सुकून   ने
हम  वो  नहीं  जो  भीख  उठा  कर  निकल  गए

किस  काम  की    हुज़ूर    ये  आज़ादिए-सुख़न
गर  आप    दरिंदों  की    सदा  से    दहल  गए  !

                                                                                          (2016)

                                                                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: उसूल : सिद्धांत; नसीब : प्रारब्ध;  साक़ी : मदिरा परोसने वाला; रसूख़ : प्रतिष्ठा; सुराही : मदिरा-पात्र; ज़ख़्म: घाव; तलाशे-ख़ुल्द: स्वर्ग की खोज; दोज़ख़ : नर्क; ऐश: आनंद; अरमां : अभिलाषाएं; इन्'आम : पुरस्कार; इकराम: कृपाएं; हस्रत : इच्छा; ज़र: स्वर्ण, धन; ज़मीर : विवेक; ताजदार: सत्ताधारी ; सुकून : आत्म-संतोष, धैर्य; आज़ादिए-सुख़न : अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता; गर : यदि; दरिंदों : हिंसक पशुओं ; सदा : स्वर, पुकार।

हराम सदी तक ...

कांधे  पे  सर  रखा  है  अभी  तक  यही  बहुत
ज़िंदा  हैं  इस  हराम  सदी  तक  यही  बहुत

जी  चाहता  है  आग  लगा  दें  उमीद  को
पहुंचे  न  बात  आगज़नी  तक  यही  बहुत

सहरा   तलाशता  है   समंदर   यहां-वहां
मिल  जाए  कहीं  राह  नदी  तक  यही  बहुत

इज़्हारे  इश्क़  यूं  भी   मेरा  मुद्द'आ   नहीं
आए  हैं  आप  दिल  की  गली  तक  यही  बहुत

सर  है  हमारे  पास  तो  दिल  है  खुला  हुआ
फेंकें  न  कोई  तीर  ख़ुदी  तक  यही  बहुत

कर  ले  हज़ार  तंज़  मेरे  तंग  हाल  पर
उट्ठे  नज़र  न  मोतबरी  तक  यही  बहुत

का'बे  के  आसपास  बहुत  धुंद  ही  सही
इक  राह  है  फ़राग़दिली  तक  यही  बहुत !

                                                                               (2016)

                                                                         -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ : हराम: अपवित्र; सदी : शताब्दी; उमीद : आशा; आगज़नी : अग्निकांड; सहरा : मरुस्थल;समंदर:समुद्र;
इज़्हारे इश्क़: प्रेम निवेदन; मुद्द'आ: विषय; ख़ुदी : स्वाभिमान; तंज़ : व्यंग्य; तंग हाल: दयनीय स्थिति, मोतबरी : विश्वसनीयता; का'बा : इस्लाम का पवित्रतम धार्मिक स्थल; धुंद : ढूंढ; फ़राग़दिली : आत्मिक संतोष।

बुधवार, 24 अगस्त 2016

क़ाज़ी करे फ़रेब ....

क़ाज़ी  करे  फ़रेब  तो  अल्लाह  क्या  करे
इक  मर्द  दूजे  मर्द  को  आगाह  क्या  करे

ताजिर  के  हाथ  में  हैं  हुकूमत  की  चाभियां
सरकार  हर  ग़रीब  की  परवाह  क्या  करे

जिस-तिस  के  दर  पे  जाके  न  सर  को  झुकाइए
हो  पीर  ख़ुद  मुरीद  तो  दरगाह  क्या  करे

ग़ालिब  के  तब्सिरे  का  भी  हक़  सामईं  को  है
जायज़  न  हो  कलाम  तो  मद्दाह  क्या  करे

लाज़िम  है  शायरी  में  बहकना  ख़याल  का
शायर  हो  ख़ुदपरस्त  तो  इस्लाह  क्या  करे

गर  चोट  जिस्म  पर  हो  तो  आसान  है  दवा
हो  रूह  ज़ख़्म  ज़ख़्म    तो  जर्राह  क्या  करे

मुमकिन  है  हो  तवील  शबे-तार  राह में
तारीक  हों  दिमाग़  तो  मिस्बाह  क्या  करे 1

                                                                                            (2016)

                                                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: क़ाज़ी: धर्माधिकारी, धर्मग्रंथ के आधार पर न्याय करने वाला; फ़रेब : छल; आगाह : सचेत; ताजिर : व्यापारी; हुकूमत : शासन; पीर: पहुंचे हुए, ख्यात संत; मुरीद : अनुयायी; दरगाह : समाधि; तब्सिरा ; समीक्षा; हक़ : अधिकार; सामईं : श्रोता गण; जायज़: उचित; कलाम : रचना; मद्दाह ; प्रशंसक; लाज़िम: स्वाभाविक; ख़्याल: सोच, विचार, कल्पना; ख़ुदपरस्त : आत्म-मुग्ध; इस्लाह : सुझाव, परामर्श; गर: यदि; जिस्म : शरीर;
रूह; आत्मा; ज़ख़्म  ज़ख़्म ; घावों से भरी; जर्राह : शल्य-चिकित्सक; मुमकिन: संभव; तवील : लंबी; शबे-तार : अमावस्या ; तारीक : अंधकार ग्रस्त; मिस्बाह : दीपक ।










मंगलवार, 23 अगस्त 2016

पुरसाने-हाल रख...

दिल  में  मलाल  रख  न  ज़ेहन  में  सवाल  रख
अल्फ़ाज़  में  उमीद  कहन  में  कमाल  रख

तन्हा  न  सह  सकेगा  शबे-तार  की  घुटन
अपने  क़रीब  कोई  तो  पुरसाने-हाल  रख

फ़ानी  हैं  तख़्तो-ताजो-हुकूमत-ओ-सल्तनत
जब  तक  उरूज  पर  है  नज़र  में  जवाल  रख

आज़ादिए-सुख़न   से    परेशां  है    बादशा:
तुझको  ये  लाज़िमी  है  कि  सर  को  संभाल  रख

सरकार  चाहती  है    झुकाना    अवाम  को
हर  हाल  में  ज़मीरो-ख़ुदी  का  ख़्याल  रख

शाने-फ़क़ीर    शाहे-सिकंदर   से   कम  नहीं
कासा  उठा  लिया  है  तो  जाहो-जलाल  रख

इतना  न  सर  झुका  कि  नज़र  ही  न  उठ  सके
अल्लाह  भी  ग़लत  है   तो   हक़  से  सवाल  रख  !

                                                                                            (2016)
                                                                        
                                                                                     -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: मलाल : खेद, अवसाद, ज़ेहन: मस्तिष्क, अल्फ़ाज़: शब्दावली; उम्मीद: आशा; कहन: कथन-शैली;
तन्हा: अकेले; शबे-तार: अमावस्या, अंधकार पूर्ण रात्रि, पुरसाने-हाल: सुख-दुःख पूछने वाला, शुभचिंतक; फ़ानी: नश्वर; तख़्तो-ताज: राजासन एवं मुकुट; हुकूमत: शासन, सल्तनत: साम्राज्य; मंज़ूर: स्वीकार; आज़ादिए-सुख़न: अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता; लाज़िमी: स्वाभाविक; अवाम: नागरिक-समुदाय; ज़मीर: विवेक; ख़ुदी: स्वाभिमान; शाने-फ़क़ीर: भिक्षुक की भव्यता; कासा: भिक्षा-पात्र; जाहो-जलाल: तेज-प्रताप; हक़ से: साधिकार ।
                                                                            

रविवार, 21 अगस्त 2016

... सख़ी की तलाश में

सदमात  लाज़िमी  हैं  ख़ुशी  की  तलाश  में
हमने  भी  ग़म  सहे  हैं  किसी  की  तलाश  में

वादे  भुला-भुला  के  तुम्हें  क्या  मिला  कहो
अख़बार  बंट  रहे  हैं  तुम्हारी  तलाश  में

रौशन  थी  जिनके  दम  से  कभी  महफ़िले-मिज़ाह
वो  भी  हैं  अश्कबार  हंसी  की  तलाश  में

इक  चांद  ही  नहीं  है  मुहब्बत  में  दर-ब-दर
गर्दिश  में  है  ज़मीं  भी  ख़ुदी  की  तलाश  में

मुमकिन  है  आज  कोई  मुरादों  की  भीख  दे
कासा  लिए  खड़े  हैं  सख़ी  की  तलाश  में

शिद्दत  ने  तिश्नगी  की  समंदर  बना  दिया
सहरा  झुलस   रहा  था  नमी  की  तलाश  में

ख़ुश  थे  हमें  वो  ख़ुल्द  से  बाहर  निकाल  कर
अब  तूर  पर  खड़े  हैं  हमारी  तलाश  में  !

                                                                                                 (2016)

                                                                                           -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थः  सदमात: आघात (बहुव.); लाज़िमी: अपरिहार्य, स्वाभाविक; रौशन: प्रकाशमान; महफ़िले-मिज़ाह: हास्य-व्यंग्य की गोष्ठी; अश्कबार: आंसू भरे; दर-ब-दर: एक द्वार से दूसरे द्वार, गली-गली; मुमकिन: संभव; मुरादों: अभिलाषाओं; कासा: भिक्षा-पात्र; सख़ी: दानी, उदारमना; शिद्दत: तीव्रता; तिश्नगी: सुधा, प्यास; समंदर: सागर; सहरा: मरुस्थल; ख़ुल्द: स्वर्ग; तूर: एक मिथकीय पर्वत जहां ख़ुदा के प्रकट होने का मिथक है।  


शुक्रवार, 19 अगस्त 2016

...मक़बरा रह जाएगा !

कुछ  कहा  कुछ  अनकहा  रह  जाएगा
ख़ून     सीने   में       जमा    रह  जाएगा

कल   न   होंगे   हम    नज़र   के  सामने
एक         एहसासे-वफ़ा       रह  जाएगा

भुखमरी        बेरोज़गारी          ख़ुदकुशी
क्या   यही   सब     देखना    रह   जाएगा

सल्तनत   है   आज    कल   ढह   जाएगी
ज़ख्म     लेकिन     टीसता    रह   जाएगा

आम   इंसां     लाम    पर    जब   आएगा
बुत     गिरेंगे      मक़बरा      रह   जाएगा

बंद          होगी       जब     बयाज़े-ज़िंदगी
कोई    सफ़हा     अधखुला     रह  जाएगा

चल  दिए  हम   आपका   दिल  छोड़  कर
सिर्फ़        ख़ाली     दायरा      रह  जाएगा  !

                                                                                (2016)

                                                                           -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: एहसासे-वफ़ा : आस्था की अनुभूति; सल्तनत : साम्राज्य; ज़ख्म : घाव; आम  इंसां : जन-साधारण; बुत: मूर्त्ति; मक़बरा : समाधि; बयाज़े-ज़िंदगी : जीवन की दैनंदिनी; सफ़हा : पृष्ठ; दायरा : घेरा ।