ज़ीस्त में जी लगा न पाए तो
अज़्म अपना बचा न पाए तो
तेज़ रफ़्तार तिफ़्ल हैं सारे
हम क़दम ही मिला न पाए तो
रूठने का ख़याल जायज़ है
वक़्त रहते मना न पाए तो
एक तस्वीर साथ रख लेते
दूर रह कर भुला न पाए तो
ईद अपनी बिगाड़िए क्यूं कर
वो: गले से लगा न पाए तो
बंदगी का क़रार कर तो लें
आप रिश्ता निभा न पाए तो
रात में जल्व: गर न हों साहब
ख़्वाब में सर झुका न पाए तो ?
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: ज़ीस्त: जीवन; अज़्म: अस्मिता; तिफ़्ल: बच्चे; जायज़: उचित, वैध; बंदगी का क़रार: भक्ति का अनुबंध; जल्व: गर: प्रकट।
अज़्म अपना बचा न पाए तो
तेज़ रफ़्तार तिफ़्ल हैं सारे
हम क़दम ही मिला न पाए तो
रूठने का ख़याल जायज़ है
वक़्त रहते मना न पाए तो
एक तस्वीर साथ रख लेते
दूर रह कर भुला न पाए तो
ईद अपनी बिगाड़िए क्यूं कर
वो: गले से लगा न पाए तो
बंदगी का क़रार कर तो लें
आप रिश्ता निभा न पाए तो
रात में जल्व: गर न हों साहब
ख़्वाब में सर झुका न पाए तो ?
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: ज़ीस्त: जीवन; अज़्म: अस्मिता; तिफ़्ल: बच्चे; जायज़: उचित, वैध; बंदगी का क़रार: भक्ति का अनुबंध; जल्व: गर: प्रकट।
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