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मंगलवार, 30 सितंबर 2014

दिल की सदा ...

ख़ुल्द  की  अब  हमें  याद  आती  नहीं
और  हूरें    हमें    अब     बुलाती  नहीं

एक  तो   वक़्त  पर   मौत  आती  नहीं
आए  तो  बिन  लिए  साथ  जाती  नहीं

एक  हम  ही     हमेशा    निशाना  बने
ज़ीस्त  यूं  भी  सभी  को  सताती  नहीं

कोई  शिकवा  नहीं  कोई  रंजिश  नहीं
कुछ  अदाएं  हमें  बस,   लुभाती  नहीं

लोग  अब  इश्क़  से  भी  झुलसने  लगे
इसलिए  बर्क़  दिल  को  लगाती  नहीं

काश!  सुनते  कभी  आप  दिल  की  सदा
तो    नज़र     राह    में    डबडबाती  नहीं

जिस्म  ही  है  सभी  मुश्किलों  की  वजह
रूह  को    कोई   आतिश    जलाती  नहीं  !

                                                                    (2014)

                                                           -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ख़ुल्द: स्वर्ग; हूरें: अप्सराएं; ज़ीस्त: जीवन; शिकवा: अप्रसन्नता; रंजिश: वैमनस्य; अदाएं: हाव-भाव; बर्क़: तड़ित, आकाशीय विद्युत; जिस्म: शरीर; रूह: आत्मा; आतिश: अग्नि। 

सोमवार, 29 सितंबर 2014

करिश्मा-ए-क़ातिल...

आप  दिल  में  रहें,  दिल  रहे  न  रहे
दर्द  सहने   के   क़ाबिल  रहे  न  रहे

आज  हालात  अपने  मुआफ़िक़  नहीं
कल  मगर  कोई  मुश्किल  रहे  न  रहे

हम  मुसाफ़िर,  सफ़र  है  हमारी  अना
सामने  राहो-मंज़िल  रहे  न  रहे

रक़्स  करते  हुए  होश  क़ायम  रहें
फिर  यही  रंगे-महफ़िल  रहे  न  रहे

हम  समंदर  हदों  से  गुज़र  जाएं  तो
नामे-दरिय:-ओ-साहिल  रहे  न  रहे

आप  तैयारियां  कीजिए  कूच  की
कल  करिश्मा-ए-क़ातिल  रहे  न  रहे

जीत  लेंगे  शबे-तार  को  आप  हम
शम्ए-माह  शामिल  रहे  न  रहे  !

                                                                       (2014)

                                                                 -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: क़ाबिल:योग्य; हालात: अवस्था; मुआफ़िक़: अनुकूल; अना: प्रयास; राहो-मंज़िल: मार्ग एवं लक्ष्य; रक़्स: नृत्य; होश: चेतना; क़ायम: स्थिर; रंगे-महफ़िल: सभा का वातावरण; नामे-दरिय:-ओ-साहिल: नदी और तट का नाम; कूच: धावा; करिश्मा-ए-क़ातिल: हत्यारे का चिह्न; शबे-तार: अमावस्या; शम्ए-माह: चंद्रमा-रूपी दीपिका। 

रविवार, 28 सितंबर 2014

रेगिस्तान दिल का ...

ये  रेगिस्तान  दिल  का,  यां  समंदर  डूब  जाते  हैं
हमीं  हैं  जो  यहां  तक  भी  गुलों  को  खींच  लाते  हैं

तुम  आंखें  बंद  करके  आईने  में  ढूंढते  क्या  हो
हमारे  ख़्वाब  तो  दिल  में  तुम्हारे  झिलमिलाते  हैं

ख़्यालों  को  कभी  आज़ाद  रख  कर  भी  ग़ज़ल  कहिए
बह् र  की  क़ैद  से  अक्सर  परिंदे  भाग  जाते  हैं

सुना  तो  है  किसी  से,  आप  भी  मायूस  हैं  दिल  से
चले  आएं  यहां,  हम  आपको  नुस्ख़े   बताते  हैं

दिलों  को  लूटने  का  फ़न  कहीं  से  सीख  आते  हैं
यहां  आ  कर  हसीं  सब  दांव  हम  पर  आज़माते  हैं

यहां क्या  है,  वहां  जाओ  जहां  पर  हुस्न  अटका  है
यहां  पर  तो  ज़ईफ़ी  के  निशां  दिल  को  डराते  हैं

हमारी  गोर  को  सब  रौज़:-ए-दरवेश  कहते  हैं
फ़रिश्ते  भी  यहां  आ  कर  अदब  से  सर  झुकाते  हैं !       

                                                                                         (2014)

                                                                                -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: रेगिस्तान: मरुस्थल; समंदर: समुद्र; बह् र: छंद; क़ैद: कारा; परिंदे: पक्षी; मायूस: निराश; नुस्ख़ा: उपचार का उपाय; फ़न: कला; हसीं: सुंदर लोग; हुस्न: सौंदर्य; ज़ईफ़ी  के  निशां: वृद्धावस्था के चिह्न; गोर: क़ब्र, समाधि; रौज़:-ए-दरवेश: चमत्कारी सिद्ध व्यक्ति की दरगाह; अदब: सम्मान। 


शनिवार, 27 सितंबर 2014

हैं आदतन लुटेरे !

हम  पर  निगाह  रखिए,  मग़रूर  हो  न  जाएं
हद  से  कहीं  ज़ियाद:  मशहूर  हो  न  जाएं

डरते  हैं  इश्क़  से  वो:,  ये  आज  की  ख़बर  है
हालात  से  किसी  दिन  मजबूर  हो  न  जाएं

हो  बात  एक  दिन  की  तो  झेल  लें  जिगर  पर
ज़ुल्मो-सितम  ख़ुदा  के  दस्तूर  हो  न  जाएं

सीरत  से,  तरबियत  से,  हैं  आदतन  लुटेरे
ये  रहनुमा  वतन  के  नासूर  हो  न  जाएं 

पर  मिल  गए  अगरचे,  परवाज़  लाज़िमी  है
अरमान  दोस्तों  के  काफ़ूर  हो  न  जाएं

हैं  सर-ब-सज्द:  यूं  कि  माशूक़  है  नज़र  में
इस  खेल  में  ख़ुदा  से  हम  दूर  हो  न  जाएं

अश्'आर  पर  हमारे  सरकार  की  नज़र  है
सच  बोल कर  किसी  दिन,  मंसूर  हो  न  जाएं !

                                                                               (2014)

                                                                       -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: मग़रूर: गर्वोन्मत्त; ज़ुल्मो-सितम: अन्याय-अत्याचार; दस्तूर: प्रथा, चलन; सीरत: स्वभाव; तरबियत: सभ्यता  के  संस्कार; आदतन: प्रवृत्ति से; रहनुमा: नेता-गण; नासूर: ऐसा घाव जिसमें कीड़े पड़ जाते हैं; अगरचे: यदि कहीं;  परवाज़: उड़ान;  लाज़िमी: आवश्यक; काफ़ूर: कर्पूर; सर-ब-सज्द:: साष्टांग प्रणाम; माशूक़: प्रेमी/प्रेमिका; अश्'आर: शे'र (बहु.); मंसूर: हज़रत मंसूर: इस्लाम के एक पैग़ंबर, अद्वैतवादी दार्शनिक, जिनके 'अनलहक़' ('अहं ब्रह्मास्मि' ) कहने पर उन्हें फांसी पर चढ़ा दिया गया था।

गुरुवार, 25 सितंबर 2014

दिलनवाज़ी के लिए...

ख़ुल्द  में  क्या-क्या  मिलेगा,  साथ  चल  कर  देख  लें
अस्लियत  क्या  है  ख़ुदा  की,  आंख  मल  कर  देख  लें

हारने    या     जीतने    में     हौसले     का     फ़र्क़     है
गिर  गए  तो  हर्ज़  क्या  है,  फिर  संभल  कर  देख  लें

ख़ाकसारी   क्या    बुरी  है     नेक  मक़सद    के   लिए
आशिक़ी  में    अश्क  की   मानिंद    ढल  कर  देख  लें

चांद    शायद    रो   रहा   है    याद    करके     आपको
दिलनवाज़ी   के  लिए   छत  पर   टहल  कर  देख  लें

हर्फ़   ईमां   पर     लगाना    दुश्मनों    की     चाल  है
हो  शुब्हा  तो  आप  हमसे  दिल  बदल  कर  देख  लें

भाव   आटे-दाल   का    क्या   है,   समझने   के  लिए
मुफ़लिसी  की  आग  में  कुछ  रोज़  जल  कर  देख  लें

आपकी      जल्वागरी   के      मुंतज़िर  हैं    दो-जहां
झूठ  समझें  तो  ज़रा  घर  से  निकल  कर  देख  लें !

                                                                                      (2014)

                                                                              -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ख़ुल्द: स्वर्ग; अस्लियत: वास्तविकता; हौसले: उत्साह, प्रेरणा;  फ़र्क़: अंतर; हर्ज़: हानि; ख़ाकसारी: दीनता, अहंकार/गर्व का त्याग करना; नेक  मक़सद: शुभ उद्देश्य;  अश्क की मानिंद: अश्रु के समान; दिलनवाज़ी: मन रखना, सांत्वना; हर्फ़: दोष, कलंक; ईमां: आस्था; शुब्हा: संदेह; मुफ़लिसी: दरिद्रता; जल्वागरी: पूर्ण स्वरूप में प्रकट होना; मुंतज़िर: प्रतीक्षारत । 

बुधवार, 24 सितंबर 2014

ग़ज़ब हैं हौसले...!

ये  आदाबे-मुहब्बत  है,  वो  जश्ने-बेवफ़ाई  है
इधर  हूरो-फ़रिश्ते  हैं,  उधर  बाक़ी  ख़ुदाई  है

सबक़  कहिए,  सज़ा  कहिए  कि  ईनामे-वफ़ा  कहिए
ख़ुदा  ने  छांट  कर  दिल  पर  मिरे  बिजली  गिराई  है

तलाशे-नूर  में  हमने  कई  दीवान  लिख  डाले
हमारा  जिस्म   सर-ता-पा  सुबूते-रौशनाई  है 

उम्मीदों  का  चटख़ना  क्या,  नज़र  का  डूबना  क्या  है
वही  ये बात  समझेंगे  जिन्होंने  चोट  खाई  है

ज़मीं  से  आसमां  तक  सिर्फ़  तेरी  ही  हुकूमत  हो
ग़ज़ब  हैं  हौसले  तेरे,  अजब  ये  रहनुमाई  है  !

किसी  का  हक़  नहीं  छीना,  किसी  का  दिल  नहीं  तोड़ा
समझ  कर,  सोच  कर  कहिए  कि  हममें  क्या  बुराई  है ?

हमारा  नाम  सुन  कर  ही  हुकूमत  होश  खो  देगी
कि  हमने  ये  बग़ावत  की  शम्'अ  क्यूं  कर  जलाई  है

किसी  को  हक़  नहीं  है,  मैकदे  में  वाज़  करने  का
ख़ुदा  ने  क्या  किसी  से  पूछ  कर  दुनिया  बनाई  है ?!

                                                                                       (2014)

                                                                              -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: आदाबे-मुहब्बत: प्रेम का शिष्टाचार; जश्ने-बेवफ़ाई: छल-कपट का उत्सव; हूरो-फ़रिश्ते: अप्सराएं एवं देवदूत; बाक़ी : शेष; ख़ुदाई: संसार, सांसारिकता; सबक़: शिक्षा; ईनामे-वफ़ा: आस्था का पुरस्कार; तलाशे-नूर: प्रकाश की खोज; दीवान: काव्य-संग्रह; जिस्म: शरीर; सर-ता-पा: सिर से पैर तक; सुबूते-रौशनाई: शब्दशः, मसि या अंधकार का प्रमाण, भावार्थ, प्रकाश का प्रमाण; हौसले: उत्साह; अजब: विचित्र; रहनुमाई: नेतृत्व; हक़: अधिकार; हुकूमत: शासन, सरकार; बग़ावत: विद्रोह; शम्'अ: ज्योति; मैकदे: मदिरालय; वाज़: प्रवचन। 


सोमवार, 22 सितंबर 2014

जन्नते-शद्दाद...

ख़ुदा  का  काम है,  उसने  हमें   बर्बाद  कर  डाला
तुम्हें  किस  शै  ने  क़ैदे-जिस्म  से  आज़ाद  कर  डाला ?

नज़रसाज़ी  हुनर  है  जो  विरासत  में  नहीं  मिलता
अरूज़े-ज़ीस्त  में  जिसने  हमें  उस्ताद  कर  डाला

असर  कैसे  न  होगा  गर  दिले-बुलबुल  से  निकलेगी
दबी-सी  आह  ने  घायल  दिले-सैयाद  कर  डाला 

मरहबा  कह  रहे  हैं  सब  निगाहे-नाज़  पर  तेरी
दिले-नाशाद  को  जिसने  दिले-नौशाद  कर  डाला

कन्हैया  नाम  था  उस  तिफ़्ल   का  बंशी  बजाता  था
कि  जिसकी  तान  ने  दोनों  जहां  को  शाद  कर  डाला

हमारा  भी  नशेमन  फूंक  डाला   फ़ौजे-शाही  ने 
मगर  इस  आतिशे-ग़म ने  हमें  फ़ौलाद  कर  डाला

न  जाने  किस  तरह  की  सोच  लेकर  आए  हैं  साहब
ख़्याले-हिंद  को  भी  जन्नते-शद्दाद  कर  डाला  !

                                                                                              (2014)

                                                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: शै: वस्तु/व्यक्ति/शक्ति; क़ैदे-जिस्म: शरीर के बंधन; नज़रसाज़ी: विश्लेषण हेतु सोद्देश्य दृष्टि-निपात; हुनर: कौशल; विरासत:उत्तराधिकार; दिले-बुलबुल: बुलबुल का हृदय; दिले-सैयाद; बहेलिये का हृदय; मरहबा; धन्य-धन्य; तिफ़्ल: शिशु; शाद; प्रसन्न, सुखी; निगाहे-नाज़: भावपूर्ण दृष्टि; दिले-नाशाद: दु:खी हृदय; दिले-नौशाद: अभी-अभी प्रसन्न हुए व्यक्ति का हृदय; नशेमन: घर, घोंसला;   फ़ौजे-शाही: राजा की सेना; आतिशे-ग़म: दु:ख की अग्नि; फ़ौलाद: इस्पात; ख़्याले-हिंद: भारत का विचार/दर्शनिकता; जन्नते-शद्दाद: शद्दाद का स्वर्ग-मिस्र का एक अधर्मी-नास्तिक शासक शद्दाद अपने-आप को ख़ुदा मानता था । उसने इसे स्वीकार्य बनाने के लिए एक कृत्रिम स्वर्ग का निर्माण किया था। माना जाता है कि इस 'स्वर्ग' में प्रवेश करने के पूर्व ही, इसके द्वार पर उसके पुत्र ने उसकी हत्या कर दी थी।

बुधवार, 17 सितंबर 2014

ताज ज़ेरे-कदम नहीं होता !

ज़ुल्म  नालों  से  कम  नहीं  होता
बुज़दिलों  पर  करम  नहीं  होता

जो  रिआया  में  दम  नहीं  होता
ताज    ज़ेरे-कदम     नहीं  होता 

बढ़  रहे  हैं  सितम  हुकूमत  के
हौसला  है  कि  कम  नहीं  होता

बात  कहते   अगर   सलीक़े  से
सामईं  को    भरम   नहीं  होता

शाह  से    आप    डर  गए  होंगे 
सर  हमारा  तो  ख़म  नहीं  होता

चांद  रौशन  रहे  कि  बुझ  जाए
दाग़े-दामान    कम   नहीं  होता

वस्ल  में  नफ़्स  थम  गई  वर्ना
ख़ुदकुशी  का  वहम  नहीं  होता

रोज़  सज्दे  करे  नज़र  फिर  भी
वो  मिरा   हमक़दम   नहीं  होता 

जान     किरदार  में   नहीं  आती
गर  ख़ुदा   बे-रहम   नहीं  होता ! 

                                                             (2014)

                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ज़ुल्म: अन्याय; नालों: आर्त्तनादों; बुज़दिलों: कायरों; करम: (ईश्वरीय) कृपा; रिआया: प्रजा, नागरिक; दम: शक्ति; ताज: राजमुकुट; ज़ेरे-कदम: पांव के नीचे; सितम: अत्याचार;  हुकूमत: शासन, सरकार; हौसला: उत्साह; सलीक़े से: व्यवस्थित रूप से; सामईं: श्रोता-गण; रौशन: प्रकाशित; दाग़े-दामान: उपरिवस्त्र के पल्लू या हृदय-स्थल पर लगा कलंक; वस्ल: मिलन; नफ़्स: सांस; ख़ुदकुशी: आत्म-हत्या; वहम: संदेह; सज्दे: शीश भूमि पर झुका कर किया जाने वाला प्रणाम; हमक़दम: सहयात्री; किरदार: चरित्र; गर: यदि; बे-रहम: निर्दय।


मंगलवार, 16 सितंबर 2014

एक गुज़ारिश...

दिल  से  हमें  निजात  दिला  दीजिए  हुज़ूर
हो  कोई  ख़रीदार,  मिला  दीजिए  हुज़ूर

सदियां  गईं  सुरूरे-नज़्र  में  जनाब  के
अब  तो  दवाए-होश  पिला  दीजिए  हुज़ूर

ये   हिज्र  तोड़िए  कि  कह  सकें  नई  ग़ज़ल
मरते  हुए  ख़याल  जिला  दीजिए  हुज़ूर 

दावा  नहीं  प'  एक  गुज़ारिश  ज़ुरूर  है
दिल  से  मिरी  ख़ताएं  भुला  दीजिए  हुज़ूर

दुनिया-ए-हुस्नो-इश्क़  ख़ुदा  का  निज़ाम  है
नफ़रत  की  हर  किताब  जला  दीजिए  हुज़ूर

इंसान  के  अज़ीम  फ़राइज़  तमाम  हैं
मुस्कान  किसी  लब  प'  खिला  दीजिए  हुज़ूर

बदनाम  न  हो  जाए  इबादत  का  सिलसिला
मोमिन  को  एक  बार  सिला  दीजिए  हुज़ूर  !

                                                                                 (2014)

                                                                          -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: निजात: मुक्ति, छुटकारा; सुरूरे-नज़्र: दृष्टि का मद; हिज्र: वियोग; ख़याल: कल्पनाएं; गुज़ारिश: निवेदन; ख़ताएं: अपराध; 
दुनिया-ए-हुस्नो-इश्क़: सौन्दर्य और प्रेम का संसार; निज़ाम: व्यवस्था; नफ़रत: घृणा; अज़ीम: महान, बड़े;  फ़राइज़: कर्त्तव्य;  
लब: ओष्ठ; इबादत: पूजा; सिलसिला: क्रम, परंपरा; मोमिन: आस्थावान; सिला: प्रतिफल।



सोमवार, 15 सितंबर 2014

...नींद उड़ाने वाले !

सामने  आएं  ज़रा    आंख  चुराने  वाले
दीद  के  नाम  प'  एहसान  जताने  वाले

आज  की  रात  क़यामत  ज़रूर  उतरेगी
याद  आए  हैं  हमें     नींद  उड़ाने  वाले

ख़ूब  देखे  हैं  अह् ले-हिंद  ने  सिकंदर  भी
सर  झुकाए  ही  गए  तेग़  उठाने  वाले

कोई  हिटलर,  कोई  तोजो  न  मिलेगा  ढूंढे
ज़िद  प'  आएं  तो  सही  जान  लड़ाने  वाले

चीर  कर  देख  लें  रग़-रग़  में  लहू  की  रंगत
आएं  मैदान  में  इल्ज़ाम  लगाने  वाले

शुक्र  करते  हैं  अदा  रोज़  ख़ुदा  का  अपने
बे-ख़याली  में  हमें  दोस्त  बनाने  वाले

मौत  तेरा  भी  किसी  रोज़  गिरेबां  लेगी
ज़ुल्म  मासूम  ग़रीबों  प'  ढहाने  वाले  !

                                                                             (2014)

                                                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: दीद: दर्शन; एहसान: अनुग्रह; क़यामत: प्रलय; अह् ले-हिंद: भारत के निवासी; सिकंदर: सिकंदर महान, प्राचीन यूनान का प्रख्यात योद्धा जिसने ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में भारत पर आक्रमण किया था; तेग़: तलवार; हिटलर: जर्मनी का नस्लवादी तानाशाह, जिसने दूसरे विश्व-युद्ध में लाखों यहूदियों का संहार किया; तोजो: जापान का तानाशाह; इल्ज़ाम: आरोप; बे-ख़याली: आत्म-विस्मृति; गिरेबां: गर्दन; ज़ुल्म: अत्याचार; मासूम: निर्दोष, निरपराध ।

शुक्रवार, 12 सितंबर 2014

...तो बेहतर था !

मैं  शीशा  हूं,  वो  पत्थर  था
वही  टूटा,  जो  कमतर   था

न  पीता  मैं  तो  क्या  करता
तिरी  आंखों  में    साग़र  था

यक़ीं  सबने  किया  मुझ  पर
मैं  जो  अंदर  था,  बाहर  था

हमारे  दिल  की  मत  पूछो
हमेशा  से        समंदर  था 

ज़माने      को     बदल  देता 
अगर  वो  शख़्स  साहिर  था

मिटा  डाला      हमें  दिल  ने
न  दिल  होता  तो  बेहतर  था

ख़ुदा  का    ख़ौफ़   था  सबको
मुझे  इंसान  का      डर  था 

ख़ुदा  मैं     हो  नहीं    पाया
मिरा  हर  राज़  ज़ाहिर  था !

                                              (2014)

                                        -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ:  शीशा: कांच; कमतर: हीन; साग़र: मदिरा-पात्र; यक़ीं: विश्वास; समंदर: समुद्र; शख़्स: व्यक्ति;  साहिर: मायावी, माया रचने वाला; ख़ौफ़: भय; राज़: रहस्य;  ज़ाहिर: प्रकट। 

मौत मग़रिब तलक...

वक़्त  रहते  संभल  जाए  गर  ज़िंदगी
क्यूं  बने  हादसों  का  सफ़र  ज़िंदगी

लाज़िमी  है  कि  अब  सर  बचा  कर  चलें
वक़्त  तलवार  है,  धार  पर  ज़िंदगी

रोज़  बन  कर  गिरे  हस्रतों  के  महल 
रोज़  होती  रही  दर-ब-दर  ज़िंदगी

देखिए,   सोचिए,   तब्सिरा  कीजिए
क्यूं  बनी  ख़ुदकुशी  की  ख़बर  ज़िंदगी

छूटती  जा  रही  हाथ  से  दम-ब-दम
तेज़  रफ़्तार  की  है  बहर  ज़िंदगी

दौड़ती  जा  रही  है  अज़ल  की  तरफ़
आज  अंजाम  से  बे-ख़बर  ज़िंदगी

नूर  के  शौक़  में  हम  शम्'अ  यूं  हुए
मौत  मग़रिब  तलक,  रात  भर  ज़िंदगी  !

                                                                     (2014)

                                                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: गर: यदि; हादसों: दुर्घटनाओं; लाज़िमी: स्वाभाविक; हस्रतों: इच्छाओं; तब्सिरा: समीक्षा; ख़ुदकुशी: आत्म-हत्या; 
बहर: छंद, लय; अज़ल: प्रलय; अंजाम: परिणति; नूर: प्रकाश; मग़रिब: सूर्यास्त ।



शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

रौशनी की ख़बर...

तेरी  ख़्वाहिशों  का  पता  नहीं
कि  तू  दोस्त  बन के  मिला  नहीं

तू  न  पीर  है  न  फ़क़ीर  है
तेरी  मजलिसों  में  शिफ़ा नहीं

तुझे  रौशनी  की  ख़बर  कहां
तू  चराग़  बन  के  जला  नहीं

ये  मेरी  ख़ुदी  की  मिसाल  है
मैं  किसी  के  दर  पे  झुका  नहीं

मैं  जहां  से  दूर  निकल  गया
मुझे  अब  किसी  से  गिला  नहीं

जो  चला  गया  वो  सनम  न  था
जो  मिला  हमें  वो  ख़ुदा  नहीं

मेरा  अज़्म  है   तेरा  नूर  है
कुछ  मांगने  को  बचा  नहीं  ! 

                                                          (2014)

                                                  -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ख़्वाहिशों: इच्छाओं; पीर: सिद्ध व्यक्ति;   फ़क़ीर: संत; मजलिसों: सभाओं; शिफ़ा: समाधान; 
              ख़ुदी: स्वाभिमान; मिसाल: उदाहरण; गिला: असंतोष; सनम: सच्चा प्रेमी; अज़्म: अस्मिता। 




गुरुवार, 4 सितंबर 2014

गुनाहों का असर...

जब  कोई  ख़्वाब  निगाहों  में  संवर आता  है
ख़ुश्क  होठों   पे   तेरा  नक़्श  उभर  आता  है

चांद  गुस्ताख़  परिंदे  की  तरह  उड़ता  है
और  हर  रात  मेरी   छत  पे  उतर  आता  है

ये  ज़ईफ़ी  की  सज़ा है  कि  दौरे-कमज़र्फ़ी
जो  भी  आता  है  वो  मानिंदे-ख़बर  आता  है

शाह  करता  है  ख़ता  एक  किसी  लम्हे  में
सात  पुश्तों  पे  गुनाहों  का  असर  आता  है

इल्मो-फ़न  से  परे,  एहसासे-ज़िंदगी  है  तू
और  एहसास  कभी  ज़ेरे-बहर  आता  है ?

अलविदा  कहके  निकल  जाएंगे  ज़माने  से
हर्फ़  ईमां  पे  किसी  रोज़  अगर  आता  है

तेरे  वजूद  तलक  मेरी  नज़र  की  हद  है
और  ताहद्दे-नज़र  तू  ही  नज़र  आता  है  !

                                                                          (2014)

                                                                 -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ख़ुश्क: सूखे; नक़्श: चिह्न, खुदा हुआ चिह्न; गुस्ताख़  परिंदे: दुस्साहसी पक्षी; ज़ईफ़ी: वृद्धावस्था; दौरे-कमज़र्फ़ी: ओछेपन का युग; मानिंदे-ख़बर: समाचार की भांति; ख़ता: अपराध; लम्हे: क्षण; पुश्तों: पीढ़ियों; गुनाहों: अपराधों; इल्मो-फ़न: कला-कौशल; 
एहसासे-ज़िंदगी: जीवनानुभूति; ज़ेरे-बहर: छंद के अधीन; हर्फ़: दोष, आरोप; ईमां: आस्था; वजूद तलक: अस्तित्व तक; हद: सीमा; ताहद्दे-नज़र: दृष्टि की सीमा तक। 

बुधवार, 3 सितंबर 2014

ज़िंदगी का यक़ीं...

दोस्तों  के  दिलों  में  रहम  आ  गया
या  हमारे  ज़ेह् न  में  भरम  आ  गया ?

ख़ुशनसीबी  कि  तुम  राह  में  मिल  गए
बदनसीबी  कि  दिल  में  वहम  आ  गया 

मैकदे  से  पिए  बिन  पलट  आए  हम
राह  में  एक   शैख़े -हरम   आ  गया

मुफ़लिसों  की  गली  में  दुआएं  मिलीं,
'हमज़ुबां  आ  गया',  'हमक़दम  आ  गया'

शाह  बदले,  न  बदला  रवैया  कभी
इक  नया  दौरे-ज़ुल्मो-सितम  आ  गया

ज़िंदगी  का  यक़ीं  तो  हमें  भी  न  था
मल्कुले-मौत  भी दम-ब-दम  आ  गया

देख  लीजे  हमारी  अज़ाँ   का  असर
तूर   पर  कारसाज़े-करम  आ  गया  !

                                                                    (2014)

                                                           -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: रहम: दया; ज़ेह् न: मस्तिष्क; भरम: भ्रम; ख़ुशनसीबी: सौभाग्य; बदनसीबी: दुर्भाग्य; वहम: शंका, संदेह; मैकदे: मदिरालय; शैख़े -हरम: का'बे में रहने वाला, धर्म-भीरु; मुफ़लिसों: वंचितों; हमज़ुबां: हमारी भाषा बोलने वाला; हमक़दम: साथ में चलने वाला; रवैया: रंग-ढंग; दौरे-ज़ुल्मो-सितम: अन्याय और अत्याचार का युग;  यक़ीं: विश्वास; मल्कुले-मौत: मृत्यु-दूत; दम-ब-दम: तुरत-फ़ुरत, तत्परता से; तूर: मिस्र के साम में एक पर्वत, मिथक के अनुसार इसकी चोटी पर हज़रत मूसा अ.स. के पुकारने पर ख़ुदा ने उन्हें अपनी झलक दिखाई थी; कारसाज़े-करम: कृपा-कर्त्ता, कृपा को संभव बनाने वाला।


सोमवार, 1 सितंबर 2014

...शराफ़त चाहते हैं !

नए  एहबाब  कुछ  ज़्याद:  मुहब्बत  चाहते  हैं
हमारी  ज़ात  पर  अपनी  हुकूमत  चाहते  हैं

वो  देना  चाहते  हैं  दिल  हमें  इक शर्त्त  रख  कर
हमारी       दौलते-ईमां    अमानत  चाहते  हैं

हमारी  नींद  को  आज़ाद  करने  के  लिए  वो
किसी  मश्हूर  हस्ती  की  ज़मानत  चाहते  हैं

किसी  दिन  पूछिए  दिल  से  नीयत  में  खोट  क्या  है
हसीं  क्यूं  कर  निगाहों   में  शराफ़त  चाहते  हैं

दरख़्तों  का  यक़ीं   ही  उठ  गया  है  मौसमों  से
हरे  पत्ते  हवाओं  से  हिफ़ाज़त  चाहते  हैं

मिटाना  चाहता  है  तो  मिटा  दे,  देर  कैसी
कहां  हम  शाह  से  कोई  रियायत  चाहते  हैं

दिलों  में  फ़र्क़  पैदा  कर  हमारे  हुक्मरां  अब
ख़ुदा  के  नाम  पर  अपनी  सियासत  चाहते  हैं !

                                                                                    (2014)

                                                                           -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: एहबाब: मित्र, प्रेमी; ज़ात: सर्वस्व; हुकूमत: शासन; दौलते-ईमां: आस्था की संपत्ति;   अमानत: धरोहर, सुरक्षा-निधि; 
मश्हूर हस्ती: प्रसिद्ध व्यक्ति; ज़मानत: प्रतिभूति; शराफ़त: शिष्टता; दरख़्तों: वृक्षों; हिफ़ाज़त: सुरक्षा; रियायत: छूट; 
हुक्मरां: शासक-गण; सियासत: राजनीति।