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गुरुवार, 7 नवंबर 2013

ये: नुक़तए-नज़र ...

हमको    तीरे-नज़र  क़ुबूल  नहीं
बेशऊरों  का    दर    क़ुबूल  नहीं


दुश्मने-हुस्न   हम  नहीं  लेकिन
दिल पे  बेजा  असर  क़ुबूल  नहीं

अज़मते-मुल्क    बेचने     वालों
ये:   नुक़तए-नज़र   क़ुबूल  नहीं

चंद   सरमायदार   की     ख़ातिर
मुफ़लिसों  पे  क़हर  क़ुबूल  नहीं

कोई  समझाओ   इन  दरिंदों  को
नफ़रतों   का  ज़हर   क़ुबूल  नहीं

हमको   दोज़ख़  क़ुबूल है लेकिन
शाह    तेरा  शहर     क़ुबूल  नहीं

इब्ने-हैदर   को    छीन  ले  जाए
हमको  ऐसी  सहर  क़ुबूल  नहीं

आज   मातम   हुसैन  का  होगा
ज़िक्रे-माहो-क़मर  क़ुबूल  नहीं !

                                          ( 2013 )

                                   -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ:



अल्लः मियां बुलाते हैं !


जब  भी  तूफ़ां  क़रीब  आते  हैं
नाख़ुदा    साथ    छोड़  जाते  हैं

देख  के  लोग  साथ-साथ  हमें
संखिया  खा  के  बैठ  जाते  हैं

ज़िल्लते-हिंद  हैं  सियासतदां
क़ौम  की  बोटियां   चबाते  हैं

गर  सियासत  हमें  पसंद  नहीं
मुद्द'आ    क्यूं   इसे    बनाते  हैं

वो:  अगर शाम तक न आ पाएं
रात  भर  ख़्वाब   छटपटाते  हैं

आ   रहें    वो:     ज़रा    मदीने  से
फिर  कोई  सिलसिला  जमाते  हैं

आपके  नाम  रहा    शौक़े-सुख़न
हमको  अल्लः  मियां  बुलाते  हैं !

                                            (  2013 )

                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: नाख़ुदा: नाविक; संखिया: एक घातक विष; ज़िल्लते-हिंद: भारत के कलंक; क़ौम: राष्ट्र; मुद्द'आ: विवाद का विषय; 
सिलसिला: मिल बैठने की युक्ति;  शौक़े-सुख़न: रचना-कर्म।