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शुक्रवार, 17 जनवरी 2014

... हिजाबे-ख़ुदा !

ज़िद  नहीं  है  मगर  आज  दीदार  हो
तूर  से  फिर  मरासिम  का  इज़हार  हो

इश्क़  हो  या  महज़  आपकी  दिल्लगी
ये:  सियासत  मगर  आख़िरी  बार  हो

सात  तालों  में  दिल  की  हिफ़ाज़त  करें
आपको  ज़िंदगी  से  अगर  प्यार  हो

ज़ख़्म  हों  दर्द  हो  अश्क  हों  आह  हो
दुश्मनों  को  न  उल्फ़त  का  आज़ार  हो

लड़खड़ाते  रहें  हम  क़दम-दर-क़दम
वक़्त  की  तेज़  इतनी  न  रफ़्तार  हो

दीद  को  आपकी  ज़िंदगी  छोड़  दें
कोई  हम-सा  जहां  में  परस्तार  हो

ज़रिय:-ए-दुश्मनी  है  हिजाबे-ख़ुदा
क्यूं  इबादत  में  पर्दों  की  दीवार  हो ?!

                                                    ( 2014 )

                                               -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: दीदार: दर्शन; तूर: अरब में एक पर्वत, जिस पर चढ़ कर हज़रत मूसा ( अ.स.) ख़ुदा से वार्त्तालाप करते थे; मरासिम: सम्बंध; इज़हार: प्रदर्शन; उल्फ़त  का  आज़ार: प्रेम-रोग; दीद: 'दीदार' का लघु-रूप, दर्शन; परस्तार: पूजा करने वाला; ज़रिय:-ए-दुश्मनी: शत्रुता का उपकरण;  हिजाबे-ख़ुदा: ख़ुदा का पर्दा।


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