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गुरुवार, 23 जनवरी 2014

मौसम के साज़िंदे ..!

हम  तो  खुल  कर  सच्ची  बातें  करते  हैं
साहिब  जाने  क्यूं    दुनिया  से   डरते  हैं

रफ़्ता-रफ़्ता   याद  किसी  की   आती  है
रेशा-रेशा   दिल  में    नक़्श    उभरते  हैं

मौसम    के    साज़िंदे   सुर  में  आते  हैं
क़ुदरत  के   दामन  में  रंग   निखरते  हैं

हम  क्या  हैं  दरिया  की  मौजों  से  पूछो
तूफ़ां    हम  से    मीलों  दूर    गुज़रते  हैं

अपनी  ख़ुशियों  को  चौराहे  पर  ला  कर
हम सब के  ग़म का ख़मियाज़ा  भरते  हैं

अपना दिल वो: कश्ती है जिसके दम  पर
मज़लूमों   के   अरमां    पार    उतरते  हैं

एक  अक़ीदत  का    सरमाया   काफ़ी  है
इस  ज़रिये  से  बिगड़े  काम  संवरते  हैं !

                                                        ( 2014 )

                                                  -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: साहिब: मालिक, विशिष्ट व्यक्ति; रफ़्ता-रफ़्ता: धीरे-धीरे; रेशा-रेशा: तंतु-तंतु पर;  नक़्श: आकार; साज़िंदे: वाद्य-यंत्र बजाने वाले; दरिया: नदी; मौजों: लहरों; ख़मियाज़ा: क्षति-पूर्त्ति; कश्ती: नौका; मज़लूमों: अत्याचार-ग्रस्त; अरमां: महत्वाकांक्षाएं; अक़ीदत: आस्था; सरमाया: पूंजी; ज़रिये: संसाधन।     

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