यूं इश्क़ के मराहिल दुश्वार नहीं हैं
बस हम ही ख़ुद से इतने बेज़ार नहीं हैं
देखो, हमारे तन पर क़ीमत नहीं लिखी
इंसां हैं हम मता-ए-बाज़ार नहीं हैं
बेचें कि मुफ़्त दें दिल मसला उन्हीं का है
हम रास्ते में उनके दीवार नहीं हैं
शायद शहर का मौसम हो ख़ुशनुमां कभी
फ़िलहाल इस ख़बर के आसार नहीं हैं
ले जाएं लूट कर हम दिल आपका कहीं
शाइर हैं कोई तुर्क-ओ-तातार नहीं हैं
नंगे-जम्हूर सामने लाता नहीं कोई
अख़बार सरकशी को तैयार नहीं हैं
तेरी नवाज़िशों की चाहत नहीं हमें
मुफ़लिस ज़रूर हैं पर लाचार नहीं हैं !
( 2014 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: इश्क़: अनुराग; मराहिल: पड़ाव; दुश्वार: कठिन; बेज़ार: अप्रसन्न; मता-ए-बाज़ार: बाज़ार का सामान; मसला: समस्या; ख़ुशनुमां: प्रसन्नता-दायक, सुखद; आसार: लक्षण; तुर्क-ओ-तातार: तुर्की और वहीं के एक प्रदेश, तातार के निवासी जो मध्य-युग में किसी भी देश पर हमला करके लूट-पाट करके भाग जाते थे; नंगे-जम्हूर: लोकतंत्र की निर्लज्जता; सरकशी: विद्रोह, अवज्ञा; नवाज़िशों: कृपाओं;
मुफ़लिस: निर्धन, विपन्न।
काफी उम्दा प्रस्तुति.....
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (12-01-2014) को "वो 18 किमी का सफर...रविवारीय चर्चा मंच....चर्चा अंक:1490" पर भी रहेगी...!!!
- मिश्रा राहुल
मुफ़लिस ज़रूर हैं पर लाचार नहीं हैं !
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर गज़ल