हर ज़ख़्म सुलगता है यारों की दुआओं से
पर बाज़ नहीं आते कमबख़्त जफ़ाओं से
ईमां-ए-दुश्मनां ने उम्मीद बचा रक्खी
बेज़ार हुए जब-जब अपनों की अनाऑ से
क्यूं शम्'अ बुझाती हैं मुफ़लिस के घरौंदे की
ये: राज़ कोई पूछे गुस्ताख़ हवाओं से
हम दूर आ चुके हैं दुनिया के दायरों से
आवाज़ न अब दीजे महफ़िल की ख़लाओं से
रहने दे ऐ मुअज़्ज़िन वो: वक़्त अलहदा था
होता था उफ़क़ रौशन जब तेरी सदाओं से
गिन-गिन के रोटियां हैं, राशन है शराबों पे
घर क्या बुरा था हमको जन्नत की फ़ज़ाओं से
मस्जिद का मुंह न देखा मुश्किल पड़ी जो हमपे
क्या ख़ाक दुआ मांगें पत्थर के ख़ुदाऑ से !
( 2014 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: ज़ख़्म: घाव; कमबख़्त: अभागे; जफ़ाओं: अन्यायों, अत्याचारों; बेज़ार: दु:खी; अनाओं: अहंकारों; मुफ़लिस: विपन्न, निर्धन; गुस्ताख़: उद्दण्ड; महफ़िल की ख़लाओं: सभा के एकांतों; मुअज़्ज़िन: अज़ान देने वाला; अलहदा: भिन्न, अलग; उफ़क़: क्षितिज;
रौशन: प्रकाशमान; फ़ज़ाओं: शोभाओं, रंगीनियों।
पर बाज़ नहीं आते कमबख़्त जफ़ाओं से
ईमां-ए-दुश्मनां ने उम्मीद बचा रक्खी
बेज़ार हुए जब-जब अपनों की अनाऑ से
क्यूं शम्'अ बुझाती हैं मुफ़लिस के घरौंदे की
ये: राज़ कोई पूछे गुस्ताख़ हवाओं से
हम दूर आ चुके हैं दुनिया के दायरों से
आवाज़ न अब दीजे महफ़िल की ख़लाओं से
रहने दे ऐ मुअज़्ज़िन वो: वक़्त अलहदा था
होता था उफ़क़ रौशन जब तेरी सदाओं से
गिन-गिन के रोटियां हैं, राशन है शराबों पे
घर क्या बुरा था हमको जन्नत की फ़ज़ाओं से
मस्जिद का मुंह न देखा मुश्किल पड़ी जो हमपे
क्या ख़ाक दुआ मांगें पत्थर के ख़ुदाऑ से !
( 2014 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: ज़ख़्म: घाव; कमबख़्त: अभागे; जफ़ाओं: अन्यायों, अत्याचारों; बेज़ार: दु:खी; अनाओं: अहंकारों; मुफ़लिस: विपन्न, निर्धन; गुस्ताख़: उद्दण्ड; महफ़िल की ख़लाओं: सभा के एकांतों; मुअज़्ज़िन: अज़ान देने वाला; अलहदा: भिन्न, अलग; उफ़क़: क्षितिज;
रौशन: प्रकाशमान; फ़ज़ाओं: शोभाओं, रंगीनियों।
बहुत सुंदर...
जवाब देंहटाएंउम्दा अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंवाह बहुत खूब (y)
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