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गुरुवार, 6 नवंबर 2014

हुस्ने-शाह से तौबा !

कहां-कहां  जनाब  आजकल  भटकते  हैं
तरह-तरह  के  इत्र  जिस्म  से  महकते  हैं

किया  सलाम  किसी  ने  कि  हंस  के  देख  लिया
तो  देखिए  कि  मियां  किस  क़दर  चहकते  हैं

न  आएं  आप  बे-हिजाब  ये  गुज़ारिश  है
यहां  तमाम  बे-शऊर  दिल  धड़कते  हैं

अजब  निज़ाम  चुना  है  अवाम  ने  अबके
कि  गांव-गांव  तिफ़्ल  भूख  से  सिसकते  हैं

उन्हें  शराब  दिखाना  सही  नहीं  होगा
बिना  पिए  जनाब  बज़्म  में  बहकते  हैं

ख़ुदा  बचाए  हमें  हुस्ने-शाह  से,  तौबा
नज़र  पड़ी  नहीं  कि  आईने  चटकते  हैं

'हज़्रते-दाग़  जहां  बैठ  गए,  बैठ  गए'
ख़ुदा  उठाए,  मगर  आप  कब  सरकते  हैं !

                                                                        (2014)

                                                                -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: जनाब: श्रीमान; इत्र: सुगंध-सार; जिस्म: शरीर; बे-हिजाब: निरावरण; गुज़ारिश: निवेदन; बे-शऊर: अशिष्ट; निज़ाम: सरकार, व्यवस्था; अवाम: जन-साधारण; तिफ़्ल: शिशु; बज़्म: गोष्ठी, सभा; हुस्ने-शाह: 'शाह' की सुंदरता; तौबा: त्राहिमाम; हज़्रते-दाग़: उर्दू के सबसे बड़े समर्थक, विश्व-विख्यात शायर, यह पंक्ति उन्हीं की ।

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