ख़्वाब जिस रोज़ परिंदों में बदल जाएंगे
वक़्त के हाथ से कुछ लोग निकल जाएंगे
तुम उठे भी तो बार-बार लड़खड़ाओगे
हम गिरे भी तो किसी रोज़ संभल जाएंगे
हम यहां वस्ल की उम्मीद सजा बैठे थे
क्या ख़बर थी कि कभी आप फिसल जाएंगे
इम्तिहां लें न कभी आप हमारी ख़ू का
खेल ही खेल में अरमान मचल जाएंगे
शाह दिन-रात सब्ज़बाग़ दिखाना छोड़े
लोग नादान नहीं हैं कि बहल जाएंगे
क़त्लो-ग़ारत के इरादों को हवा मत दीजे
इस सियासत से चमनज़ार दहल जाएंगे
हर तरफ़ दरिय:-ए-उम्मीद नज़र आएगा
आतिशे-इश्क़ से जब कोह पिघल जाएंगे !
(2014)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: परिंदों: पक्षियों; वस्ल: मिलन; ख़ू: प्रकृति, स्वभाव; सब्ज़बाग़: झूठे स्वप्न; नादान: अबोध; क़त्लो-ग़ारत: हत्या और रक्तपात; सियासत: राजनीति, षड्यंत्र; चमनज़ार: हरे-भरे उद्यान; दरिय:-ए-उम्मीद: आशा की नदियां; आतिशे-इश्क़: प्रेमाग्नि; कोह: पर्वत ।
वक़्त के हाथ से कुछ लोग निकल जाएंगे
तुम उठे भी तो बार-बार लड़खड़ाओगे
हम गिरे भी तो किसी रोज़ संभल जाएंगे
हम यहां वस्ल की उम्मीद सजा बैठे थे
क्या ख़बर थी कि कभी आप फिसल जाएंगे
इम्तिहां लें न कभी आप हमारी ख़ू का
खेल ही खेल में अरमान मचल जाएंगे
शाह दिन-रात सब्ज़बाग़ दिखाना छोड़े
लोग नादान नहीं हैं कि बहल जाएंगे
क़त्लो-ग़ारत के इरादों को हवा मत दीजे
इस सियासत से चमनज़ार दहल जाएंगे
हर तरफ़ दरिय:-ए-उम्मीद नज़र आएगा
आतिशे-इश्क़ से जब कोह पिघल जाएंगे !
(2014)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: परिंदों: पक्षियों; वस्ल: मिलन; ख़ू: प्रकृति, स्वभाव; सब्ज़बाग़: झूठे स्वप्न; नादान: अबोध; क़त्लो-ग़ारत: हत्या और रक्तपात; सियासत: राजनीति, षड्यंत्र; चमनज़ार: हरे-भरे उद्यान; दरिय:-ए-उम्मीद: आशा की नदियां; आतिशे-इश्क़: प्रेमाग्नि; कोह: पर्वत ।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (23-11-2014) को "काठी का दर्द" (चर्चा मंच 1806) पर भी होगी।
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चर्चा मंच के सभी पाठकों को
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'