उन्हें मेरी परेशानी समझ में आ नहीं सकती
निगाहों की पशेमानी समझ में आ नहीं सकती
ख़ुदा के नाम पर तुमने फ़रिश्ते क़त्ल कर डाले
ख़ुदा को ही ये क़ुर्बानी समझ में आ नहीं सकती
उन्हें आज़ाद रहने दो अगर परवाज़ प्यारी है
परिंदों को निगहबानी समझ में आ नहीं सकती
इसे अब कुफ़्र कहिए, जब्र कहिए या ख़ता कहिए
हमें ये चाल शैतानी समझ में आ नहीं सकती
जिन्हें पाला कभी तुमने उन्हीं ने घर जला डाला
तुम्हारी आज हैरानी समझ में आ नहीं सकती
जिन्हें फ़िरक़ापरस्ती से मिला हो शाह का रुतबा
उन्हीं की फ़िक्रे-बेमानी समझ में आ नहीं सकती
ज़ुबां पर ज़ह्र हो जिनकी नज़र में वहशतें तारी
उन्हें इस्लाहे-क़ुर'आनी समझ में आ नहीं सकती
ख़ुदा के नूर से ख़ाली तुम्हारे मीरवाइज़ को
हमारी सुर्ख़ पेशानी समझ में आ नहीं सकती !
(2014)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: पशेमानी: लज्जा; फ़रिश्ते: देवदूत; क़ुर्बानी: बलि; परवाज़: उड़ान; निगहबानी: सतर्कता; कुफ़्र: अधर्म; जब्र: बलात् कृत्य;
ख़ता: अपराध; चाल: षड्यंत्र; दानवी; हैरानी: आश्चर्य; फ़िरक़ापरस्ती: सांप्रदायिकता; रुतबा: पद; फ़िक्रे-बेमानी: निरर्थक, दिखावे की चिंता; ज़ह्र: विष; वहशतें: क्रूरता; तारी: प्रच्छन्न; इस्लाहे-क़ुर'आनी: पवित्र क़ुर'आन का मार्गदर्शन; नूर: प्रकाश; मीरवाइज़: प्रधान धर्मोपदेशक; सुर्ख़: उत्तप्त, उज्ज्वल; पेशानी: भाल।
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (21-12-2014) को "बिलखता बचपन...उलझते सपने" (चर्चा-1834) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
http://ranjanabhatia.blogspot.in/
जवाब देंहटाएं