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बुधवार, 29 अक्तूबर 2014

ख़ुद्दार बनते हैं...

साझा आसमान: दूसरी सालगिरह 

आदाब अर्ज़, दोस्तों !
आज आपके पसंदीदा ब्लॉग 'साझा आसमान' की दूसरी सालगिरह है।
इन दो सालों में 'साझा आसमान' दुनिया के तक़रीबन हर छोटे-बड़े मुल्क तक पहुंचा। लेकिन, यह कामयाबी आपके मुसलसल त'अव्वुन के बिना मुमकिन नहीं थी। यह भी एक इत्तिफ़ाक़ है कि 'साझा आसमान' के क़ारीन में जितने लोग हिंदोस्तानी हैं, उससे भी ज़्यादह दीगर मुमालिक के हैं !
बहुत-बहुत शुक्रिया, दोस्तों ! इतने लंबे वक़्त तक साथ देते रहने के लिए । इंशाअल्लाह, यह साथ आगे भी इसी तरह चलता रहेगा।
इस मौक़े पर एक ताज़ा ग़ज़ल आपकी ख़िदमत में पेश है:

बड़े  ख़ुद्दार  बनते  हैं... 

ख़ुदा  के  नाम  से  पहले,  तुम्हारा  नाम  लेते  हैं
मुअज़्ज़िन  किसलिए  ये  शिर्क  का  इल्ज़ाम  लेते  हैं  ?

तुम्हीं  बतलाओ  क्या  तुमने  ख़ुदा  का  दिल  चुराया  है
नहीं  तो  लोग  क्यूं  खुल  कर  तुम्हारा  नाम  लेते  हैं  ?

न  जाने  कौन-सा  जादू  किया  तुमने  मुहल्ले  पर
तुम्हारा  ज़िक्र  चलते  ही  सभी  दिल  थाम  लेते  हैं

हमारा  नाम  तक  सुनना  न  था  जिनको  गवारा  कल
वही  अब   रोज़  हमसे  इश्क़  का  पैग़ाम  लेते  हैं

हुनर  सीखा  कहां  से  आपने  ये  दिलनवाज़ी  का
हमीं  पर  वार  करते  हैं,  हमीं  से  काम  लेते  हैं

हमें  पूरा  यक़ीं  है,  तुम  मिलोगे  आज  महफ़िल  में
तुम्हारी  याद  को  हम  सूरते-इलहाम  लेते  हैं

बड़े   ख़ुद्दार  बनते  हैं  हमारे  सामने  आ  कर
अंधेरे  में  वही  सरकार  से  इकराम  लेते  हैं  ! 

                                                                                   (2014) 

                                                                          -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मुअज़्ज़िन: अज़ान देने वाला; शिर्क: ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य को पूजना, अधर्म; इल्ज़ाम: आरोप; ज़िक्र: उल्लेख, चर्चा; पैग़ाम: संदेश; हुनर: कौशल; दिलनवाज़ी: मन रखना, प्रगाढ़ मैत्री; वार: प्रहार; यक़ीं: विश्वास; महफ़िल: गोष्ठी, सभा; सूरते-इलहाम: देव-वाणी की भांति; ख़ुद्दार: स्वाभिमानी; इकराम: पारितोषिक, अनुग्रह।

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