जफ़ा कीजिए या वफ़ा कीजिए
मगर होश में तो रहा कीजिए
शबे-हिज्र में कुछ तसल्ली मिले
ख़ुदा के लिए राब्ता कीजिए
बहारें चमन छोड़ कर जा चुकीं
कहां खो गए हम, पता कीजिए
करे ख़ल्क़ तारीफ़ तहरीर की
फ़लक़ पर इरादे लिखा कीजिए
संवरते हुए या बिखरते हुए
लबों पर तबस्सुम रखा कीजिए
गई उम्र सरगोशियों की, मियां
ख़ुदा से ज़रा वास्ता कीजिए
फ़रिश्ते खड़े हैं बहुत देर से
सफ़र को हमारे दुआ कीजिए !
(2014)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: जफ़ा:निष्ठाहीनता; वफ़ा: निष्ठा; शबे-हिज्र: वियोग-निशा; राब्ता: संपर्क; ख़ल्क़: सृष्टि; तहरीर: लिखावट; फ़लक़: आकाश; लबों: ओंठों; तबस्सुम: स्मित; सरगोशियां: सिर से सिर मिला कर कानाफूसी करना; वास्ता: संबंध; फ़रिश्ते: मृत्यु-दूत; सफ़र: यात्रा, यहां मृत्यु-मार्ग की ।
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जवाब देंहटाएंबेहतरीन ग़ज़ल
जवाब देंहटाएंज़ख्म नासूर बन न जाए कहीं
इश्क जख्मो से कुछ किया कीजिए
हिज्र की रात है ढल गया चाँद है
कुछ दिल को तसल्ली दिया कीजिए
marvellous...as usual...
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