शाह जब बे-नक़ाब होते हैं
देर तक दिल ख़राब होते हैं
ख़ार हम बाज़ वक़्त होते हैं
यूं अमूमन गुलाब होते हैं
कौन चाहत करे फ़रिश्तों की
लोग भी लाजवाब होते हैं
आप आंखें खुली रखा कीजे
ख़्वाब ख़ाना-ख़राब होते हैं
दर्दे-दिल मुफ़्त में नहीं मिलते
मन्नतों का जवाब होते हैं
ताज सर पर नहीं रहा करते
ज़ुल्म जब बे-हिसाब होते हैं
कोई बतलाए, कब करें सज्दा
होश में कब जनाब होते हैं ?
(2014)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: बे-नक़ाब: अनावृत्त; ख़ार: कंटक; बाज़ वक़्त: कभी-कभार, समयानुसार; अमूमन: सामान्यतः; फ़रिश्तों: देवदूतों;
ख़ाना-ख़राब: यायावर, यहां-वहां भटकने वाले; दर्दे-दिल: मन की पीड़ा; मन्नतों: प्रार्थनाओं; ज़ुल्म: अत्याचार; सज्दा: प्रणिपात;
जनाब: श्रीमान, महोदय, यहां ईश्वर के संदर्भ में ।
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