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सोमवार, 22 दिसंबर 2014

उम्मीदें सुब्हे-नौ की...


ख़ुदा को तूर ने रोका नहीं है
मगर अब मोजज़ा होता नहीं है

हमारा दिल किया वो: चाहता है
जहां ने जो कभी सोचा नहीं है

ग़लत है ख़्वाब पर क़ब्ज़ा जमाना
हमारे बीच यह सौदा नहीं है

हमारे दौर की मुश्किल यही है
कि इंसां टूट कर रोता नहीं है

बना है बाग़बां जो इस चमन का
दरख़्ते-गुल कहीं बोता नहीं है

कभी बा-ज़र्फ़ इंसां बेकसी में
तवाज़ुन ज़ेह्न  का खोता नहीं है

किए थे शाह ने वादे हज़ारों
भुलाना क्या उन्हें धोखा नहीं है ?

बचा रखिए उमीदें सुब्हे-नौ की
मुक़द्दर हिज्र में सोता नहीं है

चुकाना चाहते थे क़र्ज़ दिल का
हमारे पास अब मौक़ा नहीं है !

                                                                     (2014)

                                                              -सुरेश स्वप्निल 

शब्दार्थ: तूर: मिस्र का एक मिथकीय पर्वत, जहां हज़रत मूसा अ.स. ने ख़ुदा की एक झलक देखी थी; मोजज़ा: चमत्कार; क़ब्ज़ा: आधिपत्य; बाग़बां: माली; चमन: उद्यान; दरख़्ते-गुल: पुष्प-वृक्ष; बा-ज़र्फ़: गंभीर, धैर्यवान; बेकसी: असहायता; तवाज़ुन: संतुलन; ज़ेह्न: मस्तिष्क; सुब्हे-नौ: नया प्रभात; मुक़द्दर: भाग्य; हिज्र: वियोग । 

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