ये: शौक़-ए-ख़राबां है इस इश्क़ से भर पाए
हंस-हंस के न जी पाए रो-रो के न मर पाए
हाथों की लकीरों में कोहरे-सी इबारत थी
उम्मीद के धोखों में संभले न बिखर पाए
सूखे हुए पत्तों की तरह शाख़ से बिछड़े हैं
अब अपना मुक़द्दर तो शायद ही संवर पाए
ख़्वाबों के सफ़र अक्सर तनहा ही गुज़रते हैं
इस राह पे साथी की उम्मीद न कर पाए
कहते थे जिसे जन्नत उसकी ये: हक़ीक़त है
जिस-जिस गली से गुज़रे जलते हुए घर पाए !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: शौक़-ए-ख़राबां: बिगड़े हुओं का व्यसन; इबारत: लेख; हक़ीक़त: यथार्थ ।
हंस-हंस के न जी पाए रो-रो के न मर पाए
हाथों की लकीरों में कोहरे-सी इबारत थी
उम्मीद के धोखों में संभले न बिखर पाए
सूखे हुए पत्तों की तरह शाख़ से बिछड़े हैं
अब अपना मुक़द्दर तो शायद ही संवर पाए
ख़्वाबों के सफ़र अक्सर तनहा ही गुज़रते हैं
इस राह पे साथी की उम्मीद न कर पाए
कहते थे जिसे जन्नत उसकी ये: हक़ीक़त है
जिस-जिस गली से गुज़रे जलते हुए घर पाए !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: शौक़-ए-ख़राबां: बिगड़े हुओं का व्यसन; इबारत: लेख; हक़ीक़त: यथार्थ ।
ख़्वाबों के सफ़र अक्सर तनहा ही गुज़रते हैं
जवाब देंहटाएंइस राह पे साथी की उम्मीद न कर पाए
वाह बहुत खूब
बहुत खूब
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर रचना,आभार.
जवाब देंहटाएंbahut pyari rachna...
जवाब देंहटाएंक्या बात है ... बहुत खूब जनाब !
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन अच्छा - बुरा - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !