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रविवार, 19 मई 2013

हाथ मसलने का सबब !

इश्क़े-नाहक़  है  मेरे  ख़ाक़   में  मिलने  का  सबब
इक  पतंगे  की  तरह   आग  में  जलने  का  सबब

तू   कहे    या   न   कहे    कौन   न    समझेगा   ये:
तर्क-ए-उल्फ़त   है   तेरे   रंग   बदलने  का   सबब

रात   भर   सो   न   सके   और  ग़ज़ल  भी  न  हुई
मेरी   उलझन   है   तेरे  साथ   टहलने   का   सबब

है   इधर   आतश-ए-ख़ुर्शीद     उधर  सोज़-ए-निहाँ
सराब-ओ-तिश्नगी  है  घर  से  निकलने  का  सबब

ग़र्दिश-ए-माह-ओ-ज़मीं     इन्तहा-ए-इश्क़    हुई
दिन  निकलने  का  सबब  शाम  के  ढलने  का  सबब

वुज़ू   के   जोश   में   जलवे  से  रह  गए  महरूम
अब  बताएं  तो  किसे   हाथ  मसलने  का  सबब !

                                                                      ( 2013 )

                                                                 -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: इश्क़े-नाहक़: व्यर्थ, अनुचित प्रेम; सबब: कारण; तर्क-ए-उल्फ़त: प्रेम का परित्याग; आतश-ए-ख़ुर्शीद: सूर्य की अग्नि; सोज़-ए-निहाँ: अंतर्मन में छुपी हुई आग; सराब-ओ-तिश्नगी: मृग-जल और मृग-तृष्णा; ग़र्दिश-ए-माह-ओ-ज़मी: चन्द्र और पृथ्वी का परिभ्रमण;   इन्तहा-ए-इश्क़: प्रेम की अति; वुज़ू: नमाज़ के लिए शरीर को पवित्र  करना; जलवे: ( ईश्वर के ) दर्शन; महरूम: वंचित।

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