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शुक्रवार, 17 मई 2013

ईमान तो न देंगे !

गिरते   हैं   तो   गिर  जाएं  हम  आपकी  नज़र  से
ईमान    तो    न    देंगे    यूं    रंज़िशों   के   डर   से

मिलते  थे  कल  तलक  जो  नज़रें  झुका-झुका  के
मग़रूर   हो   गए   वो:    इकराम    की   ख़बर    से

बे-दिल   हों   सामईं   तो   कहने  से   फ़ायदा  क्या
ख़ामोश   ही   किसी   दिन   उठ   जाएंगे   शहर  से

मिट   ही   गए   जहां   से   औरंगज़ेब -ओ- अकबर
बचता   न   कोई    देखा    लम्हात   के    असर   से

देखेंगे   किस   तरह   से   चलता  है   ज़ौर-ए-ख़ंजर
हम   मुतमईं   हैं   अपने   अल्फ़ाज़   के   असर  से !

                                                                  ( 2013 )

                                                             -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: रंज़िश:शत्रुता; मग़रूर: घमंडी; इकराम: पुरस्कार या कृपा पाना; बे-दिल: हृदयहीन; सामई: श्रोता, सामने बैठे लोग; 
              लम्हात: क्षण ( बहुव. );  ज़ौर-ए-ख़ंजर: क्षुरी का बल;मुतमईं: आश्वस्त; अल्फ़ाज़: शब्द (बहुव.)।

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