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शुक्रवार, 3 मई 2013

ख़ंजर ले आ

तश्न: लब    हूं    साग़र    ले    आ
दो  बूंद    सही   भर  कर  ले  आ

मै  ख़त्म  हुई  अफ़सोस  न  कर
ख़ाली  ख़ुम  को  धो  कर  ले  आ

हर  रिंद   वली  है   महफ़िल  में
दिल  के   दुखड़े    बाहर   ले  आ

बेचें  न  कभी  हम  दिल  अपना
तू  लाख   ज़र-ओ-गौहर  ले  आ

ये: घर भी तुझीको  वक़्फ़  किया
तूफ़ां   ले   आ   सरसर   ले   आ

रख   लेंगे   तुझे   माशूक़   अगर
अपना   ईमां   हम   पर   ले  आ

ऐ चश्म-ए-क़सब  मायूस  न  हो
दिल  हाज़िर  है    ख़ंजर  ले  आ।

                                          ( 2013 )

                                 -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: तश्न: लब: प्यासे होंठ; साग़र: मदिरा-पात्र; ख़ुम: मद्य-भांड;  रिंद: मद्य-पान करने वाला; वली: संत, ज्ञानी;   ज़र-ओ-गौहर: सोना और मोती; वक़्फ़: नाम लिखना, अभिन्यास; सरसर: आंधी; माशूक़: प्रिय;  चश्म-ए-क़सब: वधिक की आंख;  मायूस: निराश; ख़ंजर: छुरी। 

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