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गुरुवार, 30 मई 2013

उम्मीद की शुआ है ख़ुदा की किताब में !

मंज़ूर    है      दीदार     तुम्हारा        हिजाब    में
फ़ुर्सत  हो  तो  आ जाओ  किसी  रोज़  ख़्वाब  में

आशिक़   की   तिश्नगी  का   आलम   न   पूछिए
आब-ए-हयात     देख     रहा      है     सराब   में

नासेह   हैं   आप    कीजिए   खुल   के   नसीहतें
ग़फ़लत   मगर   बहुत   है    आपके  हिसाब  में

बांटेंगे   इत्र-ओ-रेवड़ी   मस्जिद   में  आज  हम
आदाब   कह   रहे   हैं    वो:   हमको   जवाब  में

वाइज़  को  कर  के  मेहमां  पछता  रहे  हैं  हम
मदहोश    हो    गए   हैं     ज़रा-सी    शराब   में

आमाल   पाक-साफ़   हैं   शायर  हुए   तो  क्या
धब्बा     न      ढूंढिए      हुज़ूर     आफ़ताब   में

पाया  न  एक  लफ़्ज़  कहीं  इश्क़  के  ख़िलाफ़
उम्मीद   की   शुआ   है   ख़ुदा  की  किताब  में !

                                                             ( 2013 )

                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: हिजाब: पर्दा; तिश्नगी: प्यास; आलम: तीव्रता; आब-ए-हयात: अमृत, जीवन-जल; सराब: मरु-जल, मरु:स्थल में सूर्य की किरणों   के आंतरिक परावर्त्तन के कारण दिखाई पड़ने वाला पानी ; नासेह: नसीहत करने वाला,छिद्रान्वेषी; ग़फ़लत: गड़बड़, संशय; वाइज़:         धर्मोपदेशक; मदहोश: मद्योन्मत्त; आमाल: आचरण;पाक: पवित्र; साफ़: उज्ज्वल; आफ़ताब: सूर्य; लफ़्ज़: शब्द; शुआ: किरण; ख़ुदा की किताब: पवित्र  क़ुर'आन।

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