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रविवार, 11 अगस्त 2013

इंक़लाब बाक़ी है

लहू  में  रंग   दिल  में    इज़्तेराब  बाक़ी  है
तेरे   ख़िलाफ़     मेरा    इंक़लाब    बाक़ी  है

मेरी  नज़र  में   एहतेरामे-हुस्न   है  उतना 
तेरी  निगाह  में  जितना  हिजाब  बाक़ी  है

लिपट  गए  थे  किसी  रौ  में  वो:  कभी  हमसे
ज़हन  में  अब  भी  वो:  इत्रे-गुलाब  बाक़ी  है

बढ़ा  रहे  हैं    वो:    ग़ुस्ताख़ियां    बयानों  में
मेरी  ज़ुबां  में   मगर   'जी-जनाब'  बाक़ी  है

अवामे-क़ौम  के   दिल  में   सवाल  हैं  लाखों
निज़ामे-मुल्क  से  इक-इक  जवाब  बाक़ी  है

अवामे-हिंद  को    तारीकियों   से    डर  कैसा
हरेक  दिल  में   जहां     आफ़ताब    बाक़ी  है

मुहब्बतों  के  सिपाही  को  चैन  हो  क्यूं  कर
अगर  दिलों  में    कहीं    एहतेसाब  बाक़ी  है

तू  अपने  असलहो-लश्कर  सजा-संवार  ज़रा
ग़रीब  क़ौम   का    तुझसे    हिसाब  बाक़ी  है  !

                                                              ( 2013 )

                                                       -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: इज़्तेराब: बेचैनी, व्याकुलता;   इंक़लाब: क्रांति; एहतेरामे-हुस्न: सौंदर्य का सम्मान; हिजाब: लज्जा, पर्दा; 
रौ: भावनात्मक बहाव; ज़हन: मस्तिष्क;  इत्रे-गुलाब: गुलाब का इत्र;  ग़ुस्ताख़ियां: अशिष्टता; ज़ुबां: भाषा; अवामे-क़ौम: राष्ट्र की जनता; निज़ामे-मुल्क: देश की सरकार;   अवामे-हिंद: भारत के नागरिक; तारीकियों: अंधेरों; आफ़ताब: सूर्य;  एहतेसाब: वैमनष्य; 
असलहो-लश्कर: अस्त्र-शस्त्र और सेनाएं। 

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