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रविवार, 18 अगस्त 2013

वो मसीहा बना न दे...

ज़िक्रे-यारां   रुला   न  दे  हमको
ख़ुल्द  से  भी  उठा  न  दे  हमको

ऐ लबे-दोस्त ! ज़ब्त कर दो दिन
ज़िंदगी  की  दुआ  न  दे  हमको

हम   ग़मे-रोज़गार  से   ख़ुश  हैं
ख़्वाब  कोई  नया  न  दे  हमको

क़ब्र   मेरी   सजा    रहा  है   यूं
वो  मसीहा  बना  न  दे  हमको

दोस्त   गिनने  लगें   रक़ीबों  में
वक़्त  ऐसी  सज़ा  न  दे  हमको

बेरुख़ी  ठीक    मगर    तर्के-वफ़ा ?
ज़ख्म  इतना  बड़ा  न  दे  हमको !

दोस्ती     का    पयाम    भेजा  है
शाह  फिर  से  हरा  न  दे  हमको !

                                             ( 2013 )

                                        -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: ज़िक्रे-यारां: मित्रों का उल्लेख; ख़ुल्द: स्वर्ग; ऐ लबे-दोस्त: मित्र के अधर; ज़ब्त कर: संयम रख;   ग़मे-रोज़गार: आजीविका का दुःख; मसीहा: ईश्वरीय दूत; रक़ीबों: शत्रुओं; बेरुख़ी: उदासीनता;   तर्के-वफ़ा: निर्वाह से मुंह मोड़ना; पयाम: संदेश।

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