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शनिवार, 10 अगस्त 2013

संग-मरमर हूं मैं ...

कभी  तो  कोई  हक़ीक़त  तुम्हें  बता  देगा
मेरे   मयार   की    ऊंचाइयां     दिखा  देगा

वक़्त अकबर है  इस शै का एहतेराम करो
तुम्हें  उठा  के   कहीं  से  कहीं  बिठा  देगा

तेरा   नफ़ा    है   ये   बेताब  निगाही  मेरी
मेरा   ख़याल    तेरी  अंजुमन  सजा  देगा

तू आज़मा तो हमें  सब्र कर के  देख  ज़रा
हमारा साथ तुझे क्या से क्या   बना  देगा

संग-मरमर हूं मैं नाख़ून से कट  जाता  हूं
तुम्हारा  तीरे-नज़र  तो  मुझे  मिटा  देगा

भटक रहे हैं तेरे शहर में ये सोच  के  हम
खुदा  हमें  भी  राहे-रास्त   पे  लगा  देगा  !

                                                           ( 2013 )

                                                   -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मयार: प्रास्थिति; अकबर: सर्व शक्तिमान; शै: प्रकृति की रचना; एहतेराम: समादर;  नफ़ा: लाभ; बेताब  निगाही: आकुल दृष्टि; ख़याल: चिंतन; अंजुमन: सभा; राहे-रास्त: उचित मार्ग। 


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