दीद का दिन गुज़र न जाए कहीं
वक़्त अपना ठहर न जाए कहीं
है शबे-वस्ल जागते रहिए
ख़्वाब कोई बिखर न जाए कहीं
इख़्तिलाफ़ात घर में बेहतर हैं
घर से बाहर ख़बर न जाए कहीं
हिज्र में सब्र यूं ज़रूरी है
ग़म इधर से उधर न जाए कहीं
दर्द को काफ़िया बना तो लें
ये: ख़िलाफ़े-बहर न जाए कहीं
ज़िंदगी का ख़ुमार बाक़ी है
ये: नशा भी उतर न जाए कहीं
लोग फिर आ रहे हैं सड़कों पे
शाह की फ़ौज डर न जाए कहीं !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: दीद: दर्शन; शबे-वस्ल: मिलन की रात्रि; इख़्तिलाफ़ात: मतभेद ( बहुव.); हिज्र: वियोग; काफ़िया: शे'र में आने वाला तुकांत शब्द; ख़िलाफ़े-बहर: छंद के विरुद्ध; ख़ुमार: तंद्रा।
वक़्त अपना ठहर न जाए कहीं
है शबे-वस्ल जागते रहिए
ख़्वाब कोई बिखर न जाए कहीं
इख़्तिलाफ़ात घर में बेहतर हैं
घर से बाहर ख़बर न जाए कहीं
हिज्र में सब्र यूं ज़रूरी है
ग़म इधर से उधर न जाए कहीं
दर्द को काफ़िया बना तो लें
ये: ख़िलाफ़े-बहर न जाए कहीं
ज़िंदगी का ख़ुमार बाक़ी है
ये: नशा भी उतर न जाए कहीं
लोग फिर आ रहे हैं सड़कों पे
शाह की फ़ौज डर न जाए कहीं !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: दीद: दर्शन; शबे-वस्ल: मिलन की रात्रि; इख़्तिलाफ़ात: मतभेद ( बहुव.); हिज्र: वियोग; काफ़िया: शे'र में आने वाला तुकांत शब्द; ख़िलाफ़े-बहर: छंद के विरुद्ध; ख़ुमार: तंद्रा।
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