दिल किसी दिन मचल न जाए कहीं
हाथ से ही निकल न जाए कहीं
देर से सज-संवर रहे हैं वो
आईना ही पिघल न जाए कहीं
शैख़ पीता तो है सलीक़े से
पीते-पीते संभल न जाए कहीं
वो उतारू हैं नज़रसाज़ी पे
तीर हम पे भी चल न जाए कहीं
आज है यार मेहरबां हम पे
उसकी फ़ितरत बदल न जाए कहीं
मुद्दतों बाद हाथ आया है
वक़्त फिर से बदल न जाए कहीं
क़ौम बेताब है बग़ावत को
शाह की शाम ढल न जाए कहीं !
(2013 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: शैख़: अति-धार्मिक; नज़रसाज़ी: आंख से इशारे, नैन-मटक्का; मेहरबां: कृपालु; फ़ितरत: स्वभाव; क़ौम: राष्ट्र; बग़ावत: विद्रोह।
हाथ से ही निकल न जाए कहीं
देर से सज-संवर रहे हैं वो
आईना ही पिघल न जाए कहीं
शैख़ पीता तो है सलीक़े से
पीते-पीते संभल न जाए कहीं
वो उतारू हैं नज़रसाज़ी पे
तीर हम पे भी चल न जाए कहीं
आज है यार मेहरबां हम पे
उसकी फ़ितरत बदल न जाए कहीं
मुद्दतों बाद हाथ आया है
वक़्त फिर से बदल न जाए कहीं
क़ौम बेताब है बग़ावत को
शाह की शाम ढल न जाए कहीं !
(2013 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: शैख़: अति-धार्मिक; नज़रसाज़ी: आंख से इशारे, नैन-मटक्का; मेहरबां: कृपालु; फ़ितरत: स्वभाव; क़ौम: राष्ट्र; बग़ावत: विद्रोह।
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