अगर उफ़क़ पे हमारी नज़र नहीं होती
सबा-ए-सहर ख़ुश्बुओं से तर नहीं होती
हमीं ने आपकी आंखों में कशिश पैदा की
मगर हमीं पे आपकी नज़र नहीं होती
वक़्त करता है बहुत कोशिशें मिलाने की
कभी तुम्हें कभी हमको ख़बर नहीं होती
शबे-विसाल भी आती है शबे-हिजरां भी
हरेक रात की लेकिन सहर नहीं होती
तेरी दुआ भी हमें यूं फ़रेब लगती है
हमारे ग़म में कभी पुरअसर नहीं होती
तेरे हुज़ूर में इंसान गर बराबर हैं
तो तेरी नज़्रे-करम क्यूं इधर नहीं होती
ख़ुदा अगर हमारे सर पे हाथ रख देता
हमारी ज़िंदगी यूं दर-ब-दर नहीं होती !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: उफ़क़: क्षितिज; सबा-ए-सहर: प्रभात-समीर; तर: भीगी; कशिश: आकर्षण; शबे-विसाल: मिलन-निशा; शबे-हिजरां: वियोग-निशा; सहर: उषा; फ़रेब: छल; पुरअसर: प्रभावकारी; हुज़ूर: दरबार, समक्ष; नज़्रे-करम: कृपा-दृष्टि; दर-ब-दर: द्वार-द्वार भटकती, यायावर।
सबा-ए-सहर ख़ुश्बुओं से तर नहीं होती
हमीं ने आपकी आंखों में कशिश पैदा की
मगर हमीं पे आपकी नज़र नहीं होती
वक़्त करता है बहुत कोशिशें मिलाने की
कभी तुम्हें कभी हमको ख़बर नहीं होती
शबे-विसाल भी आती है शबे-हिजरां भी
हरेक रात की लेकिन सहर नहीं होती
तेरी दुआ भी हमें यूं फ़रेब लगती है
हमारे ग़म में कभी पुरअसर नहीं होती
तेरे हुज़ूर में इंसान गर बराबर हैं
तो तेरी नज़्रे-करम क्यूं इधर नहीं होती
ख़ुदा अगर हमारे सर पे हाथ रख देता
हमारी ज़िंदगी यूं दर-ब-दर नहीं होती !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: उफ़क़: क्षितिज; सबा-ए-सहर: प्रभात-समीर; तर: भीगी; कशिश: आकर्षण; शबे-विसाल: मिलन-निशा; शबे-हिजरां: वियोग-निशा; सहर: उषा; फ़रेब: छल; पुरअसर: प्रभावकारी; हुज़ूर: दरबार, समक्ष; नज़्रे-करम: कृपा-दृष्टि; दर-ब-दर: द्वार-द्वार भटकती, यायावर।
waah..... bahut khub
जवाब देंहटाएंअच्छी ग़ज़ल है । लिखते रहिये और ग़ज़ल को समृद्ध करते रहिये ।
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