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मंगलवार, 10 सितंबर 2013

जहां साहिल नज़र आया...

सबा   आए    सहर   आए    परिंदों    की    सदा  आए
हमारा  दिल  खुला  है  जिसकी  मर्ज़ी  हो  चला  आए

दिया  करते  थे  हरदम  बद्दुआ  रस्मे-वफ़ा  को  हम
करम  की  इन्तेहा    ये:   है    हमारे  घर  ख़ुदा  आए

खड़े  हैं  तश्ना-लब   घर  फूंक  के   राहे-तसव्वुफ़  में
मिलें  गर  पीर  से  नज़रें  तो  जी-भर  के  नशा  आए

किया  गिर्दाब  से  गर  इश्क़  हमने  तो  निभाया  भी
जहां  साहिल    नज़र  आया   सफ़ीने  को  डुबा  आए

सभी  कुछ  सोच  के  थामा  है   हमने   दामने-मौला
जज़ा  आए   क़ज़ा  आए   के:  जीने  की  सज़ा  आए

ख़याले-यार  ने    जिस  दिन    ख़ुदा  से    दूर  बैठाया
उसी  दिन   हम    सुबूते-आशनाई   को    मिटा  आए

सियासत  के  दरिंदों  ने  शहर  को  ख़ाक़  कर  डाला
ख़ुदा  उतरे  दिलों  में  तो   उम्मीदों  की  शुआ  आए  !

                                                                       ( 2013 )

                                                                -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: सबा: प्रातः समीर; सहर: उषा; सदा: स्वर, पुकार; बद्दुआ: अभिशाप;  रस्मे-वफ़ा: निर्वाह-प्रथा; करम: कृपा; इन्तेहा: अति, सीमा;  तश्ना-लब: प्यासे होंठ; भक्ति-मार्ग, पूर्ण समर्पण का मार्ग; पीर: गुरु, ईश्वर-प्राप्ति का माध्यम; गिर्दाब: भंवर;  साहिल: किनारा; 
सफ़ीने को: नाव को; मौला: हज़रत मौला अली, ख़ुदा के सच्चे सेवक;जज़ा: पारितोषिक; क़ज़ा: मृत्यु; सज़ा: दंड; 
ख़याले-यार: प्रिय का ध्यान; सुबूते-आशनाई: प्रेम के प्रमाण; सियासत: राजनीति;   दरिंदों: हिंस्र पशुओं;   ख़ाक़: राख़; शुआ: किरण। 

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