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शनिवार, 9 अगस्त 2014

चांद पर तोहमतें...

जो  न  आया  कभी  बुलाने  से
ख़्वाब  वो  आ  गया  बहाने  से

इश्क़  का  इम्तिहां  नहीं  देंगे
बाज़  आ  जाएं  आज़माने  से

कौन  है  जो  मिरे  रक़ीबों  को
रोकता  है  क़रीब  आने  से  ?

रूह  पर  रहमतें  बरसती  हैं
रस्मे-राहे-वफ़ा  निभाने  से

दोस्त-एहबाब  रूठ  जाएंगे
बज़्म  में  आइना  दिखाने  से

हाथ  से  बात  छूट  जाती  है
दर्द  को  मुद्द'आ  बनाने  से

नूर  किरदार  को  नहीं  मिलता
चांद  पर  तोहमतें  लगाने  से  !

                                                                (2014)

                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: रक़ीबों: प्रिय व्यक्तियों (व्यंजना); रहमतें: ईश्वरीय कृपाएं; रस्मे-राहे-वफ़ा: निर्वाह के मार्ग की प्रथा; दोस्त-एहबाब: मित्र एवं प्रियजन; बज़्म: सभा, सार्वजनिक रूप से; मुद्द'आ: विवाद का विषय; नूर: प्रकाश; किरदार: व्यक्तित्व, चरित्र; तोहमतें: आरोप, दोष।

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