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रविवार, 24 अगस्त 2014

हमारा वज़ीफ़ा...

उठाना-गिराना  रईसों  की  बातें 
ख़ुलूसो-मुहब्बत  ग़रीबों  की  बातें

सियासत  तुम्हारी  महज़  क़त्लो-ग़ारत
अदब-मौसिक़ी-फ़न  शरीफ़ों  की  बातें

तुम्हारे  ज़ेह् न   तक  नहीं  आ  सकेंगी
ये   बारीक़  बातें,   अदीबों  की  बातें

न  दीजे  हमें  आप  जागीर-ओ-मनसब
हमारा   वज़ीफ़ा     हसीनों   की  बातें

बह्र   मुख़्तसर-सी   कहां  तक  संभाले
ग़मे-आशिक़ी  के  महीनों  की  बातें

करें  शुक्रिया  किस  तरह  आपका  हम
सुनी  ग़ौर  से  कमनसीबों  की  बातें

हमें  भी  कहां  रास  आईं  किसी  दिन
किताबे-ख़ुदा  की,  नसीबों  की  बातें  !

                                                                   (2014)

                                                           -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ख़ुलूसो-मुहब्बत: आत्मीयता और प्रेम; सियासत: राजनीति; महज़: मात्र;  क़त्लो-ग़ारत: हत्या और मार-काट; अदब-मौसिक़ी-फ़न: साहित्य, संगीत और कला; ज़ेह् न : मानसिकता, मस्तिष्क; बारीक़: सूक्ष्म;अदीबों: साहित्यकारों;   
जागीर-ओ-मनसब: राज्य से मिली कर-मुक्त भूमि और उच्चाधिकार वाला पद;   वज़ीफ़ा: निर्वाह-वृत्ति; बह्र: छंद;  मुख़्तसर: संक्षिप्त; ग़मे-आशिक़ी: प्रेम के दु:ख; कमनसीबों: भाग्यहीनों; किताबे-ख़ुदा: ईश्वरीय पुस्तक, पवित्र क़ुर'आन; भाग्य, भाग्यवाद।

5 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (25-08-2014) को "हमारा वज़ीफ़ा... " { चर्चामंच - 1716 } पर भी होगी।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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