दोस्तों में रहे, दुश्मनों में रहे
हर जगह हम जवां धड़कनों में रहे
दरिय:-ए-अश्क की थाह लें या न लें
रात भर ख़्वाब इन उलझनों में रहे
ख़ूब है इस शहर की रवायत जहां
माहो-ख़ुर्शीद भी चिलमनों में रहे
बात की बात में अजनबी हो गए
हमनवा जो कभी बचपनों में रहे
मिट गए जो सबा-ए-सहर के लिए
ख़ुश्बुओं की तरह गुलशनों में रहे
अश्क बन कर हमें आक़िबत ये मिली
चश्मे-नम से गिरे, दामनों में रहे
आ चुके थे ख़ुदा की नज़र में मगर
हम महज़ चंद दिन मुमकिनों में रहे !
(2014)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: दरिय:-ए-अश्क: आंसुओं की नदी; रवायत: परंपरा; माहो-ख़ुर्शीद: चंद्र-सूर्य; चिलमनों: आवरणों; हमनवा: एकस्वर,सदैव सहमत; सबा-ए-सहर: प्रातः समीर; आक़िबत: सद् गति; चश्मे-नम: भीगी आंखें; दामनों: उपरिवस्त्र, दुपट्टा आदि; महज़: मात्र; चंद: चार; मुमकिनों: संभावितों।
हर जगह हम जवां धड़कनों में रहे
दरिय:-ए-अश्क की थाह लें या न लें
रात भर ख़्वाब इन उलझनों में रहे
ख़ूब है इस शहर की रवायत जहां
माहो-ख़ुर्शीद भी चिलमनों में रहे
बात की बात में अजनबी हो गए
हमनवा जो कभी बचपनों में रहे
मिट गए जो सबा-ए-सहर के लिए
ख़ुश्बुओं की तरह गुलशनों में रहे
अश्क बन कर हमें आक़िबत ये मिली
चश्मे-नम से गिरे, दामनों में रहे
आ चुके थे ख़ुदा की नज़र में मगर
हम महज़ चंद दिन मुमकिनों में रहे !
(2014)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: दरिय:-ए-अश्क: आंसुओं की नदी; रवायत: परंपरा; माहो-ख़ुर्शीद: चंद्र-सूर्य; चिलमनों: आवरणों; हमनवा: एकस्वर,सदैव सहमत; सबा-ए-सहर: प्रातः समीर; आक़िबत: सद् गति; चश्मे-नम: भीगी आंखें; दामनों: उपरिवस्त्र, दुपट्टा आदि; महज़: मात्र; चंद: चार; मुमकिनों: संभावितों।
आपकी इस रचना का लिंक दिनांकः 15 . 8 . 2014 दिन शुक्रवार को I.A.S.I.H पोस्ट्स न्यूज़ पर दिया गया है , कृपया पधारें धन्यवाद !
जवाब देंहटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंशानदार प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंBeautiful
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