शराफ़त पर किसी की आपको शर्मिंदगी क्यूं है
न जाने आपके औसाफ़ में ऐसी कमी क्यूं है
हमें जिसने गिराया था ज़माने की निगाहों में
हमारे चश्म में उसके लिए इतनी नमी क्यूं है
चला कर पीठ पर ख़ंजर जो एहसां भी जताते हैं
लबों पर आज फिर उनके ये लफ़्ज़े-दोस्ती क्यूं है
हमारी जान ले कर भी हमीं पर जान देते हो
हमारे वास्ते अब भी मियां ! दीवानगी क्यूं है
वही जानें वही समझें ये कैसा इस्तगासा है
हमारा जुर्म ज़ाहिर है तो ये रस्साकशी क्यूं है
हमारा वक़्त आया चल दिए कह कर 'ख़ुदा हाफ़िज़'
दिले-एहबाब में इस बात पर मीठी ख़ुशी क्यूं है
हमारे ग़म उसी के हैं हमारी हर ख़ुशी उसकी
ख़ुदा है दोस्त भी है तो अभी तक अजनबी क्यूं है ?
(2015)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: शराफ़त: शिष्टता; शर्मिंदगी: लज्जा का अनुभव; औसाफ़: प्रकृतिगत विशिष्टताएं, अच्छाइयां; चश्म:नयन, दृष्टि; ख़ंजर: क्षुरी; एहसां: अनुग्रह; लबों: होठों; लफ़्ज़े-दोस्ती: मित्रता का शब्द; दीवानगी: उन्मत्त प्रेम; इस्तगासा: न्यायालय में प्रस्तुत किया जाने वाला अपराध का विवरण; जुर्म: अपराध; ज़ाहिर:प्रकट, सिद्ध; ख़ुदा हाफ़िज़: 'ईश्वर रक्षा करे'; मित्रों के हृदय; अजनबी:अपरिचित।
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