लोग क्या ख़ूब ग़मगुसार रहे
मर्ग़ तक जान पर सवार रहे
थी कमी इस क़दर दुआओं की
हर जगह हम ही शर्मसार रहे
फंस गए हैं अजीब मुश्किल में
ग़म रहे या कि रोज़गार रहे
निभ गई चार दिन ख़िज़ां से भी
चार दिन मौसमे-बहार रहे
तंज़ यूं हो कि चीर दे दिल को
लफ़्ज दर लफ़्ज धारदार रहे
कह गए बात जो खुले दिल से
वो सभी ज़ुल्म के शिकार रहे
मुल्क बर्बाद हो तो हो जाए
शाह का शौक़ बरक़रार रहे
क़ब्र से भी चुकाएंगे क़िश्तें
हम अगर और क़र्ज़दार रहे
थे ज़मीं पर भी आपके मेहमां
ख़ुल्द में भी किराय:दार रहे !
आएं या भेज दें फ़रिश्तों को
क्यूं उन्हें और इंतज़ार रहे !
(2016)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: ग़मगुसार : संवेदनशील, दुःख समझने वाले ; मर्ग़ : मृत्यु ; शर्मसार : लज्जित ; रोज़गार : आजीविका ; ख़िज़ां : पतझड़ ; मौसमे-बहार : बसंत ऋतु ; तंज़ : व्यंग्य ; लफ़्ज़ दर लफ़्ज़ : शब्द प्रति शब्द ; ज़ुल्म : अत्याचार ; शौक़ : विलास ; बरक़रार : स्थायी, शास्वत ; क़ब्र : समाधि ; क़र्ज़दार : ऋणी ; ज़मीं : पृथ्वी ; मेहमां : अतिथि ; ख़ुल्द : स्वर्ग, परलोक ; फ़रिश्तों : मृत्यु-दूतों ।
मर्ग़ तक जान पर सवार रहे
थी कमी इस क़दर दुआओं की
हर जगह हम ही शर्मसार रहे
फंस गए हैं अजीब मुश्किल में
ग़म रहे या कि रोज़गार रहे
निभ गई चार दिन ख़िज़ां से भी
चार दिन मौसमे-बहार रहे
तंज़ यूं हो कि चीर दे दिल को
लफ़्ज दर लफ़्ज धारदार रहे
कह गए बात जो खुले दिल से
वो सभी ज़ुल्म के शिकार रहे
मुल्क बर्बाद हो तो हो जाए
शाह का शौक़ बरक़रार रहे
क़ब्र से भी चुकाएंगे क़िश्तें
हम अगर और क़र्ज़दार रहे
थे ज़मीं पर भी आपके मेहमां
ख़ुल्द में भी किराय:दार रहे !
आएं या भेज दें फ़रिश्तों को
क्यूं उन्हें और इंतज़ार रहे !
(2016)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: ग़मगुसार : संवेदनशील, दुःख समझने वाले ; मर्ग़ : मृत्यु ; शर्मसार : लज्जित ; रोज़गार : आजीविका ; ख़िज़ां : पतझड़ ; मौसमे-बहार : बसंत ऋतु ; तंज़ : व्यंग्य ; लफ़्ज़ दर लफ़्ज़ : शब्द प्रति शब्द ; ज़ुल्म : अत्याचार ; शौक़ : विलास ; बरक़रार : स्थायी, शास्वत ; क़ब्र : समाधि ; क़र्ज़दार : ऋणी ; ज़मीं : पृथ्वी ; मेहमां : अतिथि ; ख़ुल्द : स्वर्ग, परलोक ; फ़रिश्तों : मृत्यु-दूतों ।
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