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गुरुवार, 21 जुलाई 2016

इंक़िलाब की आहट

मिले  निगाह  बार-बार  तो  बुरा  क्या  है
बढ़े  शराब  में   ख़ुमार  तो  बुरा  क्या  है

दवाए-दिल  तो  ले  रहे  हैं  मुफ़्त  ही  हमसे
बनाएं  आप  ग़मगुसार  तो  बुरा  क्या  है

कभी  तो  दिल  का  एहतराम  भी  किया  कीजे
लगाइए  न  इश्तिहार  तो  बुरा  क्या  है

लुटा  रहे  हैं  दीद  की  नियाज़  वो  सबको
पड़ा  है  दर  पे  ख़ाकसार  तो  बुरा  क्या  है

कहा  करे  हैं  दो  जहां  हमें  ख़ुदा  अपना
किया  करें  वो   एतबार   तो  बुरा  क्या  है

दुआ ए पीर  साथ  हो  अगर  मनाज़िल  तक
दिखे  नसीब  में  दरार  बुरा  क्या  है

सज़ाए  मौत  दे  रहे  हैं  जो  फ़रिश्तों  को
रखें  वो  अज़्म  बरक़रार  तो  बुरा  क्या  है

सुनाई  दे  रही  है  इंक़िलाब  की  आहट
गिरे  जो  तख़्ते ताजदार  तो  बुरा  क्या  है !

                                                                                        (2016)

                                                                                 -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: ख़ुमार : मद, नशा ; ग़मगुसार : दुःख-सुख की चिंता करने वाला; दीद : दर्शन ; नियाज़ : भिक्षा, प्रसाद; ख़ाकसार : अकिंचन ; एतबार : विश्वास; दुआए पीर : गुरुजन की शुभेच्छा; मनाज़िल : लक्ष्यों ; सज़ाए मौत : मृत्यु दंड ; फ़रिश्तों : देवदूतों (यहां संदर्भ कश्मीरी युवा); अज़्म : सम्मान, स्वाभिमान, अस्मिता ; बरक़रार : शास्वत ;
इंक़िलाब: क्रांति, परिवर्त्तन ; तख़्ते ताजदार : शासक का आसन ।

1 टिप्पणी:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (24-07-2016) को "मौन हो जाता है अत्यंत आवश्यक" (चर्चा अंक-2413) पर भी होगी।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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