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शनिवार, 27 सितंबर 2014

हैं आदतन लुटेरे !

हम  पर  निगाह  रखिए,  मग़रूर  हो  न  जाएं
हद  से  कहीं  ज़ियाद:  मशहूर  हो  न  जाएं

डरते  हैं  इश्क़  से  वो:,  ये  आज  की  ख़बर  है
हालात  से  किसी  दिन  मजबूर  हो  न  जाएं

हो  बात  एक  दिन  की  तो  झेल  लें  जिगर  पर
ज़ुल्मो-सितम  ख़ुदा  के  दस्तूर  हो  न  जाएं

सीरत  से,  तरबियत  से,  हैं  आदतन  लुटेरे
ये  रहनुमा  वतन  के  नासूर  हो  न  जाएं 

पर  मिल  गए  अगरचे,  परवाज़  लाज़िमी  है
अरमान  दोस्तों  के  काफ़ूर  हो  न  जाएं

हैं  सर-ब-सज्द:  यूं  कि  माशूक़  है  नज़र  में
इस  खेल  में  ख़ुदा  से  हम  दूर  हो  न  जाएं

अश्'आर  पर  हमारे  सरकार  की  नज़र  है
सच  बोल कर  किसी  दिन,  मंसूर  हो  न  जाएं !

                                                                               (2014)

                                                                       -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: मग़रूर: गर्वोन्मत्त; ज़ुल्मो-सितम: अन्याय-अत्याचार; दस्तूर: प्रथा, चलन; सीरत: स्वभाव; तरबियत: सभ्यता  के  संस्कार; आदतन: प्रवृत्ति से; रहनुमा: नेता-गण; नासूर: ऐसा घाव जिसमें कीड़े पड़ जाते हैं; अगरचे: यदि कहीं;  परवाज़: उड़ान;  लाज़िमी: आवश्यक; काफ़ूर: कर्पूर; सर-ब-सज्द:: साष्टांग प्रणाम; माशूक़: प्रेमी/प्रेमिका; अश्'आर: शे'र (बहु.); मंसूर: हज़रत मंसूर: इस्लाम के एक पैग़ंबर, अद्वैतवादी दार्शनिक, जिनके 'अनलहक़' ('अहं ब्रह्मास्मि' ) कहने पर उन्हें फांसी पर चढ़ा दिया गया था।

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