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गुरुवार, 9 जनवरी 2014

रौशनी बंदगी की !

बात    जब   ज़िंदगी  की   आती  है
याद    अपनी    ख़ुदी  की  आती  है

काट   कर    उम्र     जंगे-हस्ती  में
राह     घर  वापसी  की    आती  है

दाग़ जिस  दिन  निकल  गए  दिल  के
रात  अक्सर  ख़ुशी  की  आती  है

हो  थकन  ज़ीस्त  में  तवाज़ुन  की
नींद  तब    बेख़ुदी  की    आती  है

तोड़  दे  दिल  सहर  किसी  का  जब
शाम     बादाकशी   की   आती  है

मग़रिबे-ज़ीस्त  की   सियाही  में
रौशनी     बंदगी   की     आती  है

चल  दिए  दोस्त  हम,  ख़ुदा हाफ़िज़
पालकी    ज़िंदगी  की    आती  है  !

                                                  ( 2014 )

                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ख़ुदी: स्वाभिमान; जंगे-हस्ती: जीवन-संग्राम; दाग़: दोष; ज़ीस्त: जीवन; तवाज़ुन: संतुलन;  बेख़ुदी: आत्म-विस्मृति; 
सहर: उष: काल; बादाकशी: मद्य-पान; मग़रिबे-ज़ीस्त: जीवन-संध्या; सियाही: अंधकार; रौशनी: प्रकाश; बंदगी: भक्ति, आध्यात्म; 
ख़ुदा हाफ़िज़: ईश्वर रक्षा करे; पालकी: विमान, अर्थी।

बुधवार, 8 जनवरी 2014

ख़ुदा से सौदा ...!

फ़रेब  दिल  का  मिटा  लिया  क्या
नज़र  से    पर्दा   हटा   लिया  क्या

किसी  को  धोखा  किसी  पे  तुहमत
वफ़ा  से   दामन  छुटा  लिया  क्या

गिरा  चुके  थे  जो  अपना  ईमां
ख़ुदा  ने  उनको  उठा  लिया  क्या

तमाम  ज़ुल्मात  पे  आप  चुप  हैं
ज़ुबां  को  अपनी  कटा  लिया  क्या

नफ़स-नफ़स  में  जो  लफ़्ज़े-तू  है
मेयार  अपना   घटा  लिया  क्या 

ये:  लो,  फ़रिश्ते  भी  आ  गए  हैं
अज़ल  का  सामां  जुटा  लिया  क्या

न  फ़िक्रे-उक़्बा,  न  ख़ौफ़े-दुनिया
ख़ुदा  से  सौदा  पटा  लिया  क्या ?!

                                                     ( 2014 )

                                              -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: फ़रेब: छद्म; नज़र से पर्दा: दृष्टि पर पड़ा आवरण;  तुहमत: दोषारोपण; वफ़ा: सत्यता; दामन: आंचल; 
ईमां: आस्था;  ज़ुल्मात:  अत्याचार (बहु.); ज़ुबां: जिव्हा; सांस-सांस, बात-बात; लफ़्ज़े-तू: 'तू' का संबोधन, अभद्र भाषा; 
मेयार: सामाजिक प्रतिष्ठा; फ़रिश्ते: मृत्यु-दूत; अज़ल  का  सामां: मृत्यु का सामान, प्रबंध; 
फ़िक्रे-उक़्बा: परलोक की चिंता;  ख़ौफ़े-दुनिया: संसार या लोक-लाज का भय।  









मंगलवार, 7 जनवरी 2014

ये: ज़िंदा दिली है..!

जिन्हें  दिल  लगाने  की  आदत  नहीं  है
उन्हें  भी    ग़मे-दिल  से   राहत  नहीं  है

वो:  नाहक़  हमें  अपना  दुश्मन  न  समझें
हमारी     किसी    से    अदावत  नहीं  है

बड़े  ख़ुश  हुए  आज  ये:  जान  कर  हम
के:  उनको  भी  हमसे  शिकायत  नहीं  है

तआनुक़  से   घबरा  गए    आप  यूं   ही
ये:   ताबिश-ए-ख़ूं    है     हरारत  नहीं  है

तुम्हें  अपने  दिल  में  बिठाएं  तो  कैसे
तुम्हारी     अदा   में     शराफ़त   नहीं  है

मेरे     मुस्कुराने    पे    नाराज़    क्यूं   हैं
ये:    ज़िंदा दिली    है     शरारत   नहीं  है

वो:  कैसा  ख़ुदा  है  के:  जिसकी  नज़र  में
फ़क़त      दुश्मनी     है   इनायत  नहीं  है  !

                                                              ( 2014 )

                                                       -सुरेश  स्वप्निल  

शब्दार्थ: ग़मे-दिल: हृदय की पीड़ा; नाहक़: व्यर्थ; अदावत: शत्रुता; तआनुक़: आलिंगन; 
ताबिश-ए-ख़ूं: रक्त की ऊष्णता; हरारत: ज्वर; शराफ़त: सभ्यता; ज़िंदा दिली: जीवंतता; फ़क़त: मात्र; इनायत: कृपा। 

रविवार, 5 जनवरी 2014

...उठा लें दिल को !

आप  चाहें  तो  चुरा  लें  दिल  को
राज़दां  ख़ास  बना  लें   दिल  को

उफ़!  ये:  गुस्ताख़ियां  हसीनों  की
जां  बचाएं  के:  संभालें  दिल  को

ये:  तरीक़ा  अगर  मुनासिब  हो
आप  दिन-रात  उछालें  दिल  को

इश्क़  इतना  बुरा  नहीं  शायद
लोग  इक  बार  मना  लें  दिल  को

है  शहर  में  अदब  अभी  बाक़ी
राह  में  यूं  न  निकालें  दिल  को

है  यही  फ़र्ज़  भी,  शराफ़त  भी
बदगुमानी  से  बचा  लें  दिल  को

छोड़  आए  हैं  आपके  दर  पर
काम  आए  तो  उठा  लें  दिल  को !

                                                ( 2014 )

                                         -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: राज़दां: रहस्य जानने वाला; गुस्ताख़ियां: धृष्टताएं; मुनासिब: उचित; अदब: शिष्टाचार; बदगुमानी: कु-धारणाएं; दर: द्वार ।

हवाओं से उम्मीद !

हमको  अब  भी   वफ़ाओं  से  उम्मीद  है
दोस्तों       की      दुआओं  से  उम्मीद  है

वो:  कभी  हम  पे  शायद  मेहरबां  न  हों
उनकी  क़ातिल   अदाओं  से   उम्मीद  है

साथ   दे    या   न  दे    ये:   ज़माना  हमें
आसमानी      सदाओं    से     उम्मीद  है

महफ़िलें  हैं   उन्हीं  की   जो  ज़रयाब  हैं
मुफ़लिसों   को  ख़लाओं  से   उम्मीद  है

आज   मौसम   हमारे    मुआफ़िक़  नहीं
कल   बदलती   हवाओं   से    उम्मीद  है

एक   दिन     राह   पर    लाएंगे  ज़िंदगी
मुल्क   को    रहनुमाओं   से   उम्मीद  है

अर्श   तो       हस्बे-मामूल      नाराज़  है
क्या  कहें   किन  ख़ुदाओं  से  उम्मीद  है  !

                                                       ( 2014 )

                                                 -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: ज़रयाब: समॄद्ध; मुफ़लिसों: निर्धनों; ख़लाओं: निर्जन स्थानों; मुआफ़िक़: समुचित, योग्य; 
रहनुमाओं: नेताओं; अर्श: आकाश, ईश्वर।

शनिवार, 4 जनवरी 2014

...तो बड़ी बात है !

दिल  किसी  से  मिले  तो  बड़ी  बात  है
आशना  बन  सके  तो  बड़ी  बात  है

इश्क़  बे-ताब  हो  ये:  ज़रूरी  नहीं
रूह  में  आ  बसे  तो  बड़ी  बात  है

हुस्न  की  सादगी  देख  कर  आसमां
मरहबा  कह  उठे  तो  बड़ी  बात  है

आंख  से  अश्क  गिरना  तो  मामूल  है
क़तर:-ए-ख़ूं  गिरे  तो  बड़ी  बात  है

सुनते-सुनते  तेरे  दर्द  की  दास्तां
आसमां  रो  पड़े  तो  बड़ी  बात  है

कोह  पर  आ  गए  हैं  अज़ां  के  लिए
मोजज़ा  हो  रहे  तो  बड़ी  बात  है

तीरगी  में  तुझे  याद  करते  हुए
शम्'ए-दिल  जल  उठे  तो  बड़ी  बात  है !

                                                          ( 2014 )

                                                   -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: आशना: साथी; बे-ताब: विकल; मरहबा: धन्य, साधु-साधु;  अश्क: अश्रु; मामूल: सामान्य बात, सहजता; 
क़तर:-ए-ख़ूं: रक्त की बूंद; दास्तां: आख्यान, कथा; आसमां: आकाश, ईश्वर; कोह: पर्वत; अज़ां: ईश्वर के नाम की पुकार; 
मोजज़ा: चमत्कार; तीरगी: अंधकार; शम्'ए-दिल: मन का दीप। 

गुरुवार, 2 जनवरी 2014

...दुआएं कम हैं !

जो  इब्तिदा  में  ही  चश्म  नम  हैं
तो   आइंद:   भी   कई   सितम  हैं

सनम  अगर  हैं    हमारे  दिल  में
तो उनकी नज़्रों में हम ही  हम  हैं

ख़फ़ा  अगर  हों  तो  जान  ले  लें
हुज़ूर    यूं   तो    बहुत   नरम  हैं

इधर  हैं    तूफ़ां    उधर  तजल्ली
मेरे   मकां   पे    बड़े     करम  हैं

ज़ुबां   खुले   तो  सलीब  तय  है
मगर  वफ़ा  पे   दुआएं  कम  हैं

हमीं   ख़ुदा  को   सफ़ाई  क्यूं  दें
हमें  भी   उनपे   कई   वहम  हैं

यहां  का  सज्दा  वहां  न  कीजो
ख़ुदा,  ख़ुदा  हैं;  सनम,  सनम  हैं !

                                                    ( 2014 )

                                              -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: इब्तिदा: आरंभ; चश्म नम: आंखें भीगी; आइंद:: आगे चल कर; सितम: अत्याचार; सनम: प्रिय; नज़्रों: दृष्टि; ख़फ़ा: रुष्ट; हुज़ूर: श्रीमान, मालिक, ईश्वर; तूफ़ां: झंझावात; तजल्ली: आध्यात्म का प्रकाश; मकां: आवास, समाधि, क़ब्र; ज़ुबां: जिव्हा; सलीब: सूली; 
वफ़ा: निर्वाह, आस्था; दुआएं: शुभकामनाएं; वहम: संदेह, आशंकाएं; सज्दा: भूमि पर शीश नवाना।